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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1458
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
2
अ꣣द्या꣢द्या꣣ श्वः꣢श्व꣣ इ꣢न्द्र꣣ त्रा꣡स्व꣢ प꣣रे꣡ च꣢ नः । वि꣡श्वा꣢ च नो जरि꣣तॄ꣡न्त्स꣢त्पते꣣ अ꣢हा꣣ दि꣣वा꣢ न꣡क्तं꣢ च रक्षिषः ॥१४५८॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣द्या꣡द्या꣢ । अ꣣द्य꣢ । अ꣣द्य । श्वः꣡श्वः꣢꣯ । श्वः । श्वः꣣ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्रा꣡स्व꣢꣯ । प꣣रे꣢ । च꣣ । नः । वि꣡श्वा꣢꣯ । च꣣ । नः । जरितॄ꣢न् । स꣣त्पते । सत् । पते । अ꣡हा꣢꣯ । अ । हा꣣ । दि꣡वा꣢꣯ । न꣡क्त꣢꣯म् । च꣣ । रक्षिषः ॥१४५८॥
स्वर रहित मन्त्र
अद्याद्या श्वःश्व इन्द्र त्रास्व परे च नः । विश्वा च नो जरितॄन्त्सत्पते अहा दिवा नक्तं च रक्षिषः ॥१४५८॥
स्वर रहित पद पाठ
अद्याद्या । अद्य । अद्य । श्वःश्वः । श्वः । श्वः । इन्द्र । त्रास्व । परे । च । नः । विश्वा । च । नः । जरितॄन् । सत्पते । सत् । पते । अहा । अ । हा । दिवा । नक्तम् । च । रक्षिषः ॥१४५८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1458
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - प्रभु का रक्षण
पदार्थ -
हे (इन्द्र) = बल के सब कार्यों को करनेवाले प्रभो ! शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले इन्द्र ! (अद्य अद्य) = आज – इस समय (श्वः श्व:) = कल आनेवाले दिन में (परे च) = और उससे अगले दिन भी (विश्वा अहा) = इस प्रकार सब दिनों में (न:) = हमारी त्रास्व रक्षा कीजिए ।
हे (सत्पते) = सज्जनों के रक्षक प्रभो ! (नः जरितॄन्) = हम स्तोताओं की (दिवा नक्तं च) = दिन और रात (रक्षिषः) = आप रक्षा करें ।
वस्तुत: संसार में सर्वमहान् रक्षक प्रभु ही हैं।(‘अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितम्') किसी भी रक्षक के न होने पर दैवरक्षित व्यक्ति बच ही जाता है, अनाथ के रूप में वन में छोड़ दिया गया पुरुष बच जाता है, परन्तु घर पर खूब प्रयत्न करने पर भी नहीं बचता । जिसका प्रभु रक्षक है उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता ।
हमारा कर्त्तव्य है कि हम 'सत्' बनें । सत् बनने पर हम प्रभु की रक्षा के पात्र हो जाएँगे । हम जरिता=प्रभु के उपासक बनें, उपासकों का रक्षण प्रभु का दायित्व है। प्रभु का उपासक बननेवालाउसके गुणों का गायन करनेवाला ‘प्रागाथ' ही इस मन्त्र का ऋषि है। प्रभु की उपासना से वह तेजस्वी बन कर–प्रभु के तेज को धारण करके 'भर्ग:' हो जाता है।
भावार्थ -
हम सत् बनें, प्रभु के उपासक बनें । प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर हम सदा सुरक्षित होंगे।
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