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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1460
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - सरस्वान्
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
6
ज꣣नी꣢यन्तो꣣ न्व꣡ग्र꣢वः पुत्री꣣य꣡न्तः꣢ सु꣣दा꣡न꣢वः । स꣡र꣢स्वन्तꣳ हवामहे ॥१४६०॥
स्वर सहित पद पाठज꣣नीय꣡न्तः꣢ । नु । अ꣡ग्र꣢꣯वः । पु꣣त्रीय꣡न्तः꣢ । पु꣣त् । त्रीय꣡न्तः꣢ । सु꣣दा꣢न꣢वः । सु꣣ । दा꣡न꣢꣯वः । स꣡र꣢꣯स्वन्तम् । ह꣣वामहे ॥१४६०॥
स्वर रहित मन्त्र
जनीयन्तो न्वग्रवः पुत्रीयन्तः सुदानवः । सरस्वन्तꣳ हवामहे ॥१४६०॥
स्वर रहित पद पाठ
जनीयन्तः । नु । अग्रवः । पुत्रीयन्तः । पुत् । त्रीयन्तः । सुदानवः । सु । दानवः । सरस्वन्तम् । हवामहे ॥१४६०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1460
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - उत्तम जीवन=सरस्वान्, पत्नी, पुत्र, प्रभु
पदार्थ -
मैत्रावरुणि=प्राणापान की साधनावाला वसिष्ठ- उत्तम वसुओंवाला– प्राणापान की साधना से जिसने उत्तम वसुओं को प्राप्त किया है, वह अपने जीवन को उत्तम इसलिए बना पाया है कि -
१. (जनीयन्तः) = उन्होंने पत्नी की कामना तो की, परन्तु केवल इसलिए कि (नु) = अब वे (अग्रवः) = आगे बढ़ सकें। गृहस्थ में उनके प्रवेश का उद्देश्य ‘आराम का या मौज का जीवन बिताना' न था। उन्होंने तो पत्नी का हाथ पकड़ते हुए यही शब्द कहे थे कि ('त्वया वयं धारा उदन्या इव अतिगाहेमहि द्विष:') = तेरे साथ मिलकर हम सब अप्रीतिकर – अवाञ्छनीय दुर्गुणों को ऐसे तैर जाएँ जैसे पर्वतीय जलधाराओं को हाथ पकड़कर पार कर जाते हैं । इस संसार - समुद्र में मनुष्य का अकेले पार पहुँचना । मनुष्य किसी भी समय किसी विषय-ग्राह से गृहीत हो सकता है। पतिपत्नी परस्पर रक्षा का कारण बनते हैं। कभी-कभी जीवन में निराशा भी आ सकती है— उस समय ये एक-दूसरे का उत्साहवर्धनवाले होते हैं । एवं, गृहस्थ मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए है।
२. (पुत्रीयन्तः) = इन्होंने सन्तान को भी चाहा, पर केवल (सुदानवः) = इस भावना से कि वे अपने (सु) = उत्तमांश को (दानवः) = लोकहित के लिए अपने पीछे भी दे जाएँ । उनके शरीरान्त पर ये अनुभव न हो कि वे समाप्त हो गये हैं- अपितु उनसे चलाये हुए कर्म उसी प्रकार चलते रहें । यही तो प्रजाओं के द्वारा अमर बनना है–('प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम') ।
३. इसी प्रकार एक सद्गृहस्थ बनकर ये (सरस्वन्तम्) = ज्ञान के सागर 'सरस्वान्' प्रभु को (हवामहे) = सदा पुकारते हैं। प्रातः - सायं प्रभु की प्रार्थना करते हैं – वस्तुतः खाते-पीते, सोते-जागते, उठतेबैठते ये प्रभु का स्मरण करते हैं, उसे कभी विसारते नहीं । इन तीन बातों ने ही वसिष्ठ को वसिष्ठबड़े उत्तम निवासवाला बना दिया।
भावार्थ -
हम साथी के रूप में पत्नी को चाहें, अपने लोकहित के कार्यों को नष्ट न होने देने के लिए सन्तानों को चाहें, सदा प्रभु का स्मरण करें और 'वसिष्ठ' बनें ।
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