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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1473
ऋषिः - उशनाः काव्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
4
शु꣣ष्मी꣢꣫ शर्धो꣣ न꣡ मारु꣢꣯तं पव꣣स्वा꣡न꣢भिशस्ता दि꣣व्या꣢꣫ यथा꣣ वि꣢ट् । आ꣢पो꣣ न꣢ म꣣क्षू꣡ सु꣢म꣣ति꣡र्भ꣢वा नः स꣣ह꣡स्रा꣢प्साः पृतना꣣षा꣢꣫ण् न य꣣ज्ञः꣢ ॥१४७३॥
स्वर सहित पद पाठशुष्मी꣢ । श꣡र्धः꣢꣯ । न । मा꣡रु꣢꣯तम् । प꣣वस्व । अ꣡न꣢꣯भिशस्ता । अन् । अ꣣भिशस्ता । दिव्या꣢ । य꣡था꣢꣯ । विट् । आ꣡पः꣢꣯ । न । म꣣क्षु꣢ । सु꣣मतिः꣢ । सु꣣ । मतिः꣢ । भ꣣व । नः । सहस्रा꣡प्साः꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢ । अ꣣प्साः । पृतनाषा꣢ट् । न । य꣣ज्ञः꣢ ॥१४७३॥
स्वर रहित मन्त्र
शुष्मी शर्धो न मारुतं पवस्वानभिशस्ता दिव्या यथा विट् । आपो न मक्षू सुमतिर्भवा नः सहस्राप्साः पृतनाषाण् न यज्ञः ॥१४७३॥
स्वर रहित पद पाठ
शुष्मी । शर्धः । न । मारुतम् । पवस्व । अनभिशस्ता । अन् । अभिशस्ता । दिव्या । यथा । विट् । आपः । न । मक्षु । सुमतिः । सु । मतिः । भव । नः । सहस्राप्साः । सहस्र । अप्साः । पृतनाषाट् । न । यज्ञः ॥१४७३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1473
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - शक्ति- -प्रशस्त जीवन : सुमति- -सम्प्रसाद
पदार्थ -
(शुष्पी) = यह सोम शत्रुओं का शोषण करनेवाला है, इसके शरीर में सुरक्षित होने पर रोग-कृमि नष्ट हो जाते हैं और शरीर बड़ा स्वस्थ होता है । (शर्ध: न मारुतम्) = यह सोम वायु की शक्ति [शर्ध:] के समान है—जैसे प्रचण्ड वायु का वेग सब वस्तुओं को उड़ा ले जाता है, उसी प्रकार यह सोम सब रोगों को भगा देता है । इस सोम से मनुष्य को वायु के समान बल प्राप्त होता है । (पवस्व) = हे
सोम! तू हममें पवित्रता उत्पन्न कर । तू इस प्रकार सबके जीवनों को पवित्र बना (यथा) = जिससे कि (विट्) = सारी प्रजा (अनभिशस्ता) = अनिन्दनीय हो तथा (दिव्या) = दिव्य गुणसम्पन्न बने।
हे सोम ! तू (मक्षु) = शीघ्र ही (आपः न) = जलों की भाँति (पवस्व) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाला हो और (न:) = हमारे लिए (सुमतिः) = उत्तम बुद्धिवाला (भव) = हो । हमारी बुद्धियाँ सोम की रक्षा से दीप्त व तीव्र हो जाती हैं । हे सोम ! तू हमारे लिये (स-हस्र-अप्साः) = परसन्नरूपवाला हो । सोम के होने पर जीवन में उल्लास चेहरे पर प्रसाद के रूप में प्रकट होता है और सोमपान करनेवाले का चेहरा सदा प्रसन्न दिखता है। (पृतनाषाट् न) = यह सोम काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मत्सर की सेना का पराभव करनेवाले के समान होता है । यह वह सेनापति है, जो हमारे इन सब अध्यात्मशत्रुओं को समाप्त कर देता है ।
इन सब दृष्टिकोणों से यह सोम (यज्ञः) = सङ्गतीकरणयोग्य होता है [यज-सङ्गतीकरण] । सोम शरीर का ही भाग बनाने के योग्य है—इसे शरीर में ही खपाने के लिए हमें प्रयत्नशील होना चाहिए।
भावार्थ -
सोम हमें शक्तिशाली, पवित्र, अनिन्दनीय, दिव्य जीवनवाला बनाता है, हमारी बुद्धियों को उत्तम बनाता है- हमारा जीवन प्रसादमय होता है और हमारे अध्यात्म- शत्रुओं को यह कुचल डालता है। सोम ‘यज्ञ' है – शरीर का ही भाग बनाने के योग्य है।
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