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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1472
ऋषिः - उशनाः काव्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
स꣢ ई꣣ꣳ र꣢थो꣣ न꣡ भु꣢रि꣣षा꣡ड꣢योजि म꣣हः꣢ पु꣣रू꣡णि꣢ सा꣣त꣢ये꣣ व꣡सू꣢नि । आ꣢दीं꣣ वि꣡श्वा꣢ नहु꣣꣬ष्या꣢꣯णि जा꣣ता꣡ स्व꣢र्षाता꣣ व꣡न꣢ ऊ꣣र्ध्वा꣡ न꣢वन्त ॥१४७२॥
स्वर सहित पद पाठसः । ई꣣म् । र꣡थः꣢꣯ । न । भु꣣रिषा꣢ट् । अ꣣योजि । महः꣢ । पु꣣रू꣡णि꣢ । सा꣣त꣡ये꣢ । व꣡सू꣢꣯नि । आत् । ई꣣म् । वि꣡श्वा꣢꣯ । न꣣हुष्या꣢णि । जा꣣ता꣢ । स्व꣡र्षा꣢ता । स्वः꣡ । सा꣣ता । व꣡ने꣢꣯ । ऊ꣣र्ध्वा꣡ । न꣣वन्त ॥१४७२॥
स्वर रहित मन्त्र
स ईꣳ रथो न भुरिषाडयोजि महः पुरूणि सातये वसूनि । आदीं विश्वा नहुष्याणि जाता स्वर्षाता वन ऊर्ध्वा नवन्त ॥१४७२॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । ईम् । रथः । न । भुरिषाट् । अयोजि । महः । पुरूणि । सातये । वसूनि । आत् । ईम् । विश्वा । नहुष्याणि । जाता । स्वर्षाता । स्वः । साता । वने । ऊर्ध्वा । नवन्त ॥१४७२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1472
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - परार्थ द्वारा स्वार्थ-साधन
पदार्थ -
(सः) = वह सोम (ईम्) = निश्चय से (रथः न) = रथ के समान है— इसके सुरक्षित होने पर हमारी जीवनयात्रा बड़े अच्छे ढंग से पूरी होगी । यह सोम (भूरिषाट्) = शत्रुओं का खूब ही मर्षण-पराभव करनेवाला है—इसके सुरक्षित होने पर शरीर में रोगकृमियों का प्राबल्य नहीं होता है । यह (महः) = एक तेज है, वस्तुत: शरीर में सारी तेजस्विता का आधार यही है। (पुरूणि) = पालक व पूरक (वसूनि) = वसुओं को–निवास के लिए आवश्यक रत्नों को (सातये) = प्राप्त करने के लिए (अयोजि) = यह हमारे द्वारा शरीर में संयुक्त किया गया है। वीर्य के सुरक्षित होने पर ही सब धातुएँ सुरक्षित रहती हैं।
(आत् ईम्) = अब इसके बाद निश्चय से हमारे (विश्वा) = सब कर्म (नहुष्याणि) = [नहुष=मनुष्य य=हितकर] मानवमात्र के लिए हितकर (जाता) = हो जाते हैं। सोमी पुरुष संकुचित व स्वार्थी न रहकर उदार हृदय बन जाता है। इसके सब कर्म परार्थ के द्वारा स्वार्थ का साधन कर रहे होते हैं।
यह सोमी (पुरुष वन:) = [वन्=भक्त] प्रभु के उपासक होते हैं और ये उपासक (स्वर्षातौ) = काम, क्रोध, लोभ आदि के साथ संग्राम में (ऊर्ध्वा नवन्त) = ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं — get the upper hand=विजयी बनते हैं । काम, क्रोध, लोभ आदि के साथ संग्राम सात्त्विक संग्राम है - यह संग्राम सचमुच स्वर्=स्वर्ग का साति प्राप्त करानेवाला है। काम, क्रोध, लोभ ही तो नरक के द्वार हैंइनको जीतकर मनुष्य स्वर्ग को क्यों न प्राप्त करेगा ?
भावार्थ -
सोम की रक्षा इसलिए आवश्यक है कि यह हमारी जीवन-यात्रा की पूर्ति में सहायक है—रोगों का पराभव करनेवाला है। तेजस्विता का मूल है, वसुओं को प्राप्त करानेवाला है। इस सोम की रक्षा होने पर मनुष्य मानवमात्र के हितकर कर्मों को ही करता है और अध्यात्मसंग्राम में विजयी बनता है ।
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