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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1471
ऋषिः - उशनाः काव्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
4
अ꣣य꣡ꣳ सोम꣢꣯ इन्द्र꣣ तु꣡भ्य꣢ꣳ सुन्वे꣣ तु꣡भ्यं꣢ पवते꣣ त्व꣡म꣢स्य पाहि । त्व꣢ꣳ ह꣣ यं꣡ च꣢कृ꣣षे꣡ त्वं व꣢꣯वृ꣣ष꣢꣫ इन्दुं꣣ म꣡दा꣢य꣣ यु꣡ज्या꣢य꣣ सो꣡म꣢म् ॥१४७१॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡य꣢म् । सो꣡मः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । तु꣡भ्य꣢꣯म् । सु꣣न्वे । तु꣡भ्य꣢꣯म् । सु꣣न्वे । तु꣡भ्य꣢꣯म् । प꣣वते । त्व꣢म् । अ꣣स्य । पाहि । त्व꣢म् । ह꣣ । य꣢म् । च꣣कृ꣢षे । त्वम् । ववृ꣣षे꣢ । इ꣡न्दु꣢꣯म् । म꣡दा꣢꣯य । यु꣡ज्या꣢꣯य । सो꣡म꣢꣯म् ॥१४७१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयꣳ सोम इन्द्र तुभ्यꣳ सुन्वे तुभ्यं पवते त्वमस्य पाहि । त्वꣳ ह यं चकृषे त्वं ववृष इन्दुं मदाय युज्याय सोमम् ॥१४७१॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । सोमः । इन्द्र । तुभ्यम् । सुन्वे । तुभ्यम् । सुन्वे । तुभ्यम् । पवते । त्वम् । अस्य । पाहि । त्वम् । ह । यम् । चकृषे । त्वम् । ववृषे । इन्दुम् । मदाय । युज्याय । सोमम् ॥१४७१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1471
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - पवित्रता, उल्लास, प्रभु-सायुज्य
पदार्थ -
मन्त्र का ऋषि उशना:- [प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामनावाला] है। उससे प्रभु कहते हैं कि हे उशनाः ! (त्वम्) = तू (ह) = निश्चय से (यम्) = जिस (इन्दुम्) = शक्तिशाली (सोमम्) = सोम–वीर्यशक्ति को (चकृषे) = अपने अन्दर उत्पन्न करता है और (त्वम्) = तू (यम्) = जिसको (ववृषे) = अपने अन्दर पीता है [वृष् to drink] हे (इन्द्र) = सोमपान करनेवाले जीवात्मन् ! (अयं सोमः) = यह सोम वस्तुतः (तुभ्यं सुन्वे) = तेरे लिए ही पैदा किया गया है, (तुभ्यम्) = यह सोम तेरे लिए ही (पवते) = जीवन को पवित्र करनेवाला होता है। इस प्रकार यह सोम शरीर के अन्दर व्याप्त होकर (मदाय) = हर्ष के लिए होता है— तेरे जीवन में एक उल्लास को लानेवाला होता है और (युज्याय) = तुझे प्रभु के साथ मिलाने के लिए होता है ‘ऐहलौकिक जीवन में उल्लास और परलोक में प्रभु से मेल' ये दो सोम के प्रमुख लाभ हैं । जीवन ।
में पवित्रता का संचार तो करता ही है । इसलिए (त्वम्) = तू (अस्य पाहि) = इसकी अवश्य रक्षा कर ।
भावार्थ -
हम सोम का उत्पादन व पान करनेवाले हों । यह हमें पवित्र बनाकर उल्लासयुक्त व प्रभु से मेलवाला बनाएगा।
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