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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1475
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
3

स꣡ नो꣢ म꣣न्द्रा꣡भि꣢रध्व꣣रे꣢ जि꣣ह्वा꣡भि꣢र्यजा म꣣हः꣢ । आ꣢ दे꣣वा꣡न्व꣢क्षि꣣ य꣡क्षि꣢ च ॥१४७५॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । नः꣣ । मन्द्रा꣡भिः꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ । जि꣣ह्वा꣡भिः꣢ । य꣣ज । महः꣢ । आ । दे꣣वा꣢न् । व꣣क्षि । य꣡क्षि꣢꣯ । च꣣ ॥१४७५॥


स्वर रहित मन्त्र

स नो मन्द्राभिरध्वरे जिह्वाभिर्यजा महः । आ देवान्वक्षि यक्षि च ॥१४७५॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । नः । मन्द्राभिः । अध्वरे । जिह्वाभिः । यज । महः । आ । देवान् । वक्षि । यक्षि । च ॥१४७५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1475
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

प्रभु प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि‘मधुच्छन्दा वैश्वामित्र: ' से कहते हैं कि (सः) = वह तू (न:) = हमारे (महः) = तेज को (अध्वरे) = हिंसारहित जीवन-यज्ञ में (मन्द्राभिः जिह्वाभिः) = मधुर वाणियों से (यजा) = अपने साथ सङ्गत कर। हमारे जीवन का लक्ष्य प्रभु के तेज से तेजस्वी बनना है । 'यह तेज हमें कैसे प्राप्त होगा?' इस प्रश्न का उत्तर यह है कि १. (अध्वरे) = हम अपने जीवन को हिंसारहित बनाएँ ।

यथासम्भव हमारा जीवन हिंसा से दूर हो । हम ध्वंसक कार्यों के स्थान में निर्माणात्मक कार्यों में लगें। नाश के स्थान में निर्माण हमारे जीवन का ध्येय हो २ तथा (मन्द्राभिः जिह्वाभिः) = हमारी वाणी मधुर हो - हम हित की बात को मधुर ढङ्ग से ही कहनेवाले हों। ये अहिंसा और वाणी की मिठास हमें प्रभु का तेज प्राप्त कराएगी।

प्रभु कहते हैं कि (देवान् आवक्षि) = देवताओं को व दिव्य गुणों को तू सब ओर से धारण करनेवाला बन। जहाँ कहीं भी तू जाए वहाँ से अच्छाई को ही लेनेवाला हो (च) = और उस उस अच्छाई को (यक्षि) = तू अपने साथ सङ्गत कर। एवं, प्रभु के तेज को प्राप्त करने का ३. तीसरा साधन यह हुआ कि हम दिव्य गुणों को ही देखें और उन्हें धारण करने का प्रयत्न करें।

वस्तुत: ये ही मधुर इच्छाएँ व कामनाएँ हैं कि १. मेरा जीवन अहिंसावाला हो, २. मेरी वाणी में माधुर्य हो, ३. मैं दिव्य गुणों का ही वाहक व ग्राहक बनूँ । इन मधुर इच्छाओं का करनेवाला व्यक्ति ‘मधु-छन्दाः’ - मधुर इच्छाओंवाला है, यह 'वैश्वामित्र: ' सभी का मित्र है - यह किसी से द्वेष नहीं करता ।

भावार्थ -

मैं अहिंसा का व्रती बनूँ - मेरी जिह्वा मधुमय हो और मैं सदा अच्छाई को ही देखूँ और ग्रहण करूँ ।

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