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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1480
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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आ꣢ सु꣣ते꣡ सि꣢ञ्च꣣त श्रि꣢य꣣ꣳ रो꣡द꣢स्योरभि꣣श्रि꣡य꣢म् । र꣣सा꣡ द꣢धीत वृष꣣भ꣢म् ॥१४८०॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । सु꣢ते꣡ । सि꣢ञ्चत । श्रि꣡य꣢꣯म् । रो꣡द꣢꣯स्योः । अ꣣भिश्रि꣡य꣢म् । अ꣣भि । श्रि꣡य꣢꣯म् । र꣣सा꣢ । द꣣धीत । वृषभ꣢म् ॥१४८०॥


स्वर रहित मन्त्र

आ सुते सिञ्चत श्रियꣳ रोदस्योरभिश्रियम् । रसा दधीत वृषभम् ॥१४८०॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । सुते । सिञ्चत । श्रियम् । रोदस्योः । अभिश्रियम् । अभि । श्रियम् । रसा । दधीत । वृषभम् ॥१४८०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1480
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रभु जीवों से कहता है कि (सुते) = इस उत्पन्न जगत् में, (सुते) = उत्पन्न सोम के शरीर में सुरक्षित होने पर (श्रियम्) = शोभा को (आसिञ्चत) = अपने अन्दर सिक्त करो । 'सुत' शब्द संसार का भी वाची है और सुत शब्द सोम का भी सूचक है । हे जीवो! तुम (रोदस्योः अभिश्रियम्) = द्युलोक और पृथिवीलोक की ‘अभिश्री’ को धारण करो । द्युलोक की श्री 'येन द्यौः उग्रा ' इन शब्दों में उग्रता—तेजस्विता है और पृथिवीलोक की 'पृथिवी च दृढा' इन शब्दों में दृढ़ता है। मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि की दीप्ति व तेजस्विता हो तथा शरीर में दृढ़ता हो । मस्तिष्क ही शरीर का द्युलोक है और शरीर ही यहाँ पृथिवी है । अन्दर मस्तिष्क की दीप्ति हो बाहर शरीर की दृढ़ता । इस प्रकार अन्दर व बाहर की [अभि] श्री को यह धारण करता है। अभि का अभिप्राय दोनों ओर की – अन्दर व बाहर की श्री से है। यह अन्दर व बाहर की श्री को धारण करनेवाला पुरुष 'वृषभ' है, शक्तिशाली है, प्रस्तुत मन्त्र

का ऋषि ‘भरद्वाज’ है । प्रभु कहते हैं कि (रसा) = यह पृथिवी (वृषभम्) = इस वृषभ को, शक्तिशाली को (दधीत) = धारण करे। दूसरे शब्दों में यह लोक निर्बलों के लिए नहीं है । निर्बल को तो समाप्त होना ही होगा। प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि पार्थिव श्री को शरीर में धारण करके 'भरद्वाज' बनता है और दिव्य श्री को मस्तक में धारण कर 'बार्हस्पत्य' बनता है ।
 

भावार्थ -

मैं द्युलोक व पृथिवीलोक की श्री को धारण करके इस योग्य बनूँ कि पृथिवी मेरा धारण करे ।

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