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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1484
ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
वा꣣वृधानः꣡ शव꣢꣯सा꣣ भू꣡र्यो꣢जाः꣣ श꣡त्रु꣢र्दा꣣सा꣡य꣢ भि꣣य꣡सं꣢ दधाति । अ꣡व्य꣢नच्च व्य꣣न꣢च्च꣣ स꣢स्नि꣣ सं꣡ ते꣢ नवन्त꣣ प्र꣡भृ꣢ता꣣ म꣡दे꣢षु ॥१४८४॥
स्वर सहित पद पाठवा꣣वृधानः꣢ । श꣡व꣢꣯सा । भू꣡र्यो꣢꣯जाः । भू꣡रि꣢꣯ । ओ꣣जाः । श꣡त्रुः꣢꣯ । दा꣣सा꣡य꣢ । भि꣣य꣡स꣢म् । द꣣धाति । अ꣡व्य꣢꣯नत् । अ । व्य꣣नत् । च । व्यन꣢त् । वि꣣ । अन꣢त् । च꣣ । स꣡स्नि꣢꣯ । सम् । ते꣣ । नवन्त । प्र꣡भृ꣢꣯ता । प्र । भृ꣣ता । म꣡दे꣢꣯षु ॥१४८४॥
स्वर रहित मन्त्र
वावृधानः शवसा भूर्योजाः शत्रुर्दासाय भियसं दधाति । अव्यनच्च व्यनच्च सस्नि सं ते नवन्त प्रभृता मदेषु ॥१४८४॥
स्वर रहित पद पाठ
वावृधानः । शवसा । भूर्योजाः । भूरि । ओजाः । शत्रुः । दासाय । भियसम् । दधाति । अव्यनत् । अ । व्यनत् । च । व्यनत् । वि । अनत् । च । सस्नि । सम् । ते । नवन्त । प्रभृता । प्र । भृता । मदेषु ॥१४८४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1484
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - सब विजय उस प्रभु की ही है
पदार्थ -
'यह बृहद्दिव आथर्वण' (शवसः) = सामर्थ्य से (वावृधान:) = निरन्तर बढ़ता चलता है (भूरि ओजा:) = यह भरण [धारण] करनेवाले अत्यधिक ओजवाला होता है। (शत्रुः) = कामादि का शातन [shattering] नाश करनेवाला यह इन्द्र (दासाय) = [दसु उपक्षये] उपक्षय करनेवाली कामादि वृत्तियों के लिए (भयसम्) = भय को (दधाति) = धारण करता है । भयभीत होकर ये आन्तर शत्रु दूर भाग जाते हैं—वे इस 'बृहद्दिव' के समीप नहीं फटकते ।
इस प्रकार शत्रुओं पर विजय पाकर यह 'बृहद्दिव' इस विजय में अपनी ही महिमा का अनुभव करता हुआ गर्वित नहीं होता । अपितु इस विजय को प्रभु की ही विजय समझता हुआ यह इन शब्दों में प्रभु का आराधन करता है -
(अव्यनत् च) = प्राणधारण न करनेवाले स्थावर जगत् को तथा (व्यनत् च) = विशेषरूप से प्राणक्रिया करते हुए जंगम जगत् को हे प्रभो ! आप ही (सस्त्रि) = शुचि पवित्र बनाते हो [ष्णा शौचे] । आप ही सम्पूर्ण जगत् को निर्मल कर रहे हो । आपकी ही शक्ति से सब स्तोता शत्रुओं पर विजय का लाभ करते हैं और इस प्रकार ते=आपके द्वारा प्राप्त कराये हुए (मदेषु) = आनन्दों में (प्रभृताः) = प्रकर्षेण भृत हुए-हुए सब उपासक (संनवन्त) = उत्तम कर्मों में गतिवाले होते हैं [नव गतौ] और अन्ततः आपको प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ -
प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर ही उपासक शत्रुओं का शातन [विनाश ] करनेवाला बनता है और इस प्रभु से प्राप्त करायी गयी विजय के उल्लास में वह और अधिक गतिशील बनता है ।
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