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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1505
ऋषिः - अग्निस्तापसः देवता - विश्वे देवाः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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त्वं꣡ नो꣢ अग्ने अ꣣ग्नि꣢भि꣣र्ब्र꣡ह्म꣢ य꣣ज्ञं꣡ च꣢ वर्धय । त्वं꣡ नो꣢ दे꣣व꣡ता꣢तये रा꣣यो꣡ दाना꣢꣯य चोदय ॥१५०५॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । नः꣣ । अग्ने । अग्नि꣡भिः꣢ । ब्र꣡ह्म꣢꣯ । य꣣ज्ञ꣢म् । च꣣ । वर्धय । त्व꣢म् । नः꣣ । देव꣡ता꣢तये । रा꣣यः꣢ । दा꣡ना꣢꣯य । चो꣣दय ॥१५०५॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वं नो अग्ने अग्निभिर्ब्रह्म यज्ञं च वर्धय । त्वं नो देवतातये रायो दानाय चोदय ॥१५०५॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । नः । अग्ने । अग्निभिः । ब्रह्म । यज्ञम् । च । वर्धय । त्वम् । नः । देवतातये । रायः । दानाय । चोदय ॥१५०५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1505
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

प्रभु इस तृच [=तीन ऋचाओं का समूह] की अन्तिम ऋचा में पुनः कहते हैं कि - हे (अग्ने) = उन्नतिशील जीव ! (त्वम्) = तू (अग्निभिः) = उन्नति के साधक माता, पिता व आचार्य और अथितिरूप अग्नियों से अपने जीवन में (ब्रह्म) = ज्ञान को (च) = तथा (यज्ञम्) = यज्ञ की भावना को (वर्धय) = बढ़ा । १५०१ मन्त्र के 'देव' तुझमें ज्ञान का वर्धन करें तो 'आयु' तुझे यज्ञों में गति करनेवाला बनाएँ। गत मन्त्र में ‘वाजों से अपने को परीवृत' करने का उल्लेख था । वाज का अर्थ 'धन' भी है । यह धन मनुष्य को धन्य बनाता है इसमें शक नहीं, परन्तु यही धन इतना चमकीला व आकर्षक है कि यह हमें प्रलुब्ध कर लेता है और हम इसमें फँस-से जाते हैं - यह धन हमें पकड़-सा लेता है। धन हमारे क़ाबू में नहीं होता – हम इसके क़ाबू हो जाते हैं। उस समय हम इसके चक्कर में ऐसे आ जाते हैं कि उचित व अनुचित का हमें विचार नहीं रह जाता - हमारे दिव्य गुणों की समाप्ति होने लगती है— हमारा अग्नित्व नष्ट होने लगता है, अतः प्रभु कहते हैं कि – हे अग्ने ! (त्वम्) = तू (नः रायः) = हमारे इन धनों को (देवतातये) = दिव्य गुणों के विस्तार के लिए (दानाय चोदय) = दान के लिए प्रेरित कर । तू यह न समझ कि ये धन तेरे हैं—इन्हें तूने क्या कमाया है ? ये सब धन तो हमारे हैं, अतः हमें धनों को सभी के हित के लिये दान में विनियुक्त करना ही ठीक है, इसी से हममें दिव्य गुण पनपते रहेंगे और हम सच्चे अर्थों में अग्नि होंगे ।

भावार्थ -

हम ज्ञान को बढ़ाएँ, यज्ञशील हों, धनों को दान देते हुए अपने में दिव्य गुणों का विस्तार करें ।

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