Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1504
ऋषिः - अग्निस्तापसः
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
3
प्र꣡ स विश्वे꣢꣯भिर꣣ग्नि꣡भि꣢र꣣ग्निः꣡ स यस्य꣢꣯ वा꣣जि꣡नः꣢ । त꣡न꣢ये तो꣣के꣢ अ꣣स्म꣢꣫दा स꣣म्य꣢꣫ङ्वाजैः꣢ प꣡री꣢वृतः ॥१५०४
स्वर सहित पद पाठप्र । सः । वि꣡श्वे꣢꣯भिः । अ꣣ग्नि꣡भिः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । सः । य꣡स्य꣢꣯ । वा꣣जि꣡नः꣢ । त꣡नये꣢꣯ । तो꣣के꣢ । अ꣣स्म꣢त् । आ । स꣣म्य꣢ङ् । वा꣡जैः꣢꣯ । प꣡री꣢꣯वृतः । प꣡रि꣢꣯ । वृ꣣तः ॥१५०४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र स विश्वेभिरग्निभिरग्निः स यस्य वाजिनः । तनये तोके अस्मदा सम्यङ्वाजैः परीवृतः ॥१५०४
स्वर रहित पद पाठ
प्र । सः । विश्वेभिः । अग्निभिः । अग्निः । सः । यस्य । वाजिनः । तनये । तोके । अस्मत् । आ । सम्यङ् । वाजैः । परीवृतः । परि । वृतः ॥१५०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1504
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
विषय - कौन अग्नि बना ?
पदार्थ -
‘गत मन्त्र में दिये गये प्रभु के आदेश का पालन करके कौन ठीक अग्नि बना' इसका वर्णन प्रस्तुत मन्त्र में है। प्रभु कहते हैं कि - (सः) = वह (विश्वेभिः अग्निभिः) = सब अग्नियों के द्वारा - माता, पिता, आचार्य व अतिथियों के द्वारा (प्र अग्निः) = सचमुच प्रकृष्ट अग्नि बना है, (सः) = वह ही (यस्य वाजिन:) = जिस शक्तिशाली के [वाज-strength] - सहस्कृत के – (तनये तोके) = पुत्रों व पौत्रों में भी — सभी (आ) = सर्वथा (अस्मत्) = हमारी ओर (सम्यङ्) = सम्यक्तया आनेवाले होते हैं । = वस्तुत: अग्नि तो वही बना – उन्नत तो वही हुआ— जो वेद - ज्ञान को प्राप्त करके उसके अनुष्ठान से वाजी व 'सहस्कृत' = बलवान् बना । वह स्वयं ही नहीं अपितु उसके पुत्र व पौत्र भी, अर्थात् वंशज भी यदि वेदवाणी का अध्ययन करते हुए प्रभु की ओर चलनेवाले बने हैं तभी यह कहना ठीक होगा कि यह व्यक्ति सचमुच अग्नि बना है।
यही व्यक्ति (वाजैः) = वाजों से (परीवृतः) = सब ओर से आवृत - लिपटा हुआ— होता है । वाज= त्याग, शक्ति व धन से यह संयुक्त होता है । इसके जीवन में 'त्याग' ब्राह्मणत्व को, ‘शक्ति’ क्षत्रियत्व को तथा ‘ धन’ वैश्यत्व को सूचित करता है। तीनों ही दिशाओं में अपने को उन्नत करता हुआ यह सचमुच प्रकृष्ट अग्नि है - इसने अपने जीवन में समविकास किया है |
भावार्थ -
अपने जीवन को हम सभी वाजों से - त्याग, शक्ति व धन से - संयुक्त करके उत्तम अग्नि बनें ।
इस भाष्य को एडिट करें