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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1507
ऋषिः - त्र्यरुणस्त्रैवृष्णः, त्रसदस्युः पौरुकुत्सः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - ऊर्ध्वा बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
1
अ꣣꣬भ्य꣢꣯भि꣣ हि꣡ श्रव꣢꣯सा त꣣त꣢र्दि꣣थो꣢त्सं꣣ न꣡ कं चि꣢꣯ज्जन꣣पा꣢न꣣म꣡क्षि꣢तम् । श꣡र्या꣢भि꣣र्न꣡ भर꣢꣯माणो꣣ ग꣡भ꣢स्त्योः ॥१५०७॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भ्य꣢꣯भि । अ꣣भि꣢ । अ꣣भि । हि꣢ । श्र꣡व꣢꣯सा । त꣣त꣡र्दि꣢थ । उ꣡त्स꣢꣯म् । उत् । स꣣म् । न꣢ । कम् । चि꣣त् । जनपा꣡न꣢म् । ज꣣न । पा꣡न꣢꣯म् । अ꣡क्षि꣢꣯तम् । अ । क्षि꣣तम् । श꣡र्या꣢꣯भिः । न । भ꣡र꣢꣯माणः । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः ॥१५०७॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यभि हि श्रवसा ततर्दिथोत्सं न कं चिज्जनपानमक्षितम् । शर्याभिर्न भरमाणो गभस्त्योः ॥१५०७॥
स्वर रहित पद पाठ
अभ्यभि । अभि । अभि । हि । श्रवसा । ततर्दिथ । उत्सम् । उत् । सम् । न । कम् । चित् । जनपानम् । जन । पानम् । अक्षितम् । अ । क्षितम् । शर्याभिः । न । भरमाणः । गभस्त्योः ॥१५०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1507
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - अध्यात्मयुद्ध के बाण, विषय-स्रोत का [शोषण ] संहार
पदार्थ -
१. गत मन्त्र में ‘प्रथम, वृक्तबर्हिष्' का उल्लेख हुआ है । वह 'प्रथम वृक्तवर्हिष्' (श्रवसा) = प्रशस्त कर्मों के द्वारा तथा स्तोत्रों के द्वारा (हि) = निश्चय से (अभि अभि) = अधिकाधिक प्रभु की ओर गतिवाला होता है। उत्तम-कर्म व प्रभु-स्तवन उसे प्रभु के समीप प्राप्त कराते चलते हैं।
२. यह ‘वृक्तबर्हिष्’ (कञ्चित्) = इस अवर्णनीय – जिसकी शक्ति की कल्पना भी कठिन-सी हो जाती है और जो न जाने क्यों संहारक होते हुए भी आकर्षण बना हुआ है। उस (जनपानम्) = मनुष्यों से निरन्तर जिसके रस का पान किया जा रहा है (अक्षितम्) = जो कभी समाप्त भी नहीं होता – अर्थात् जिसकी प्यास कभी बुझती ही नहीं उस (उत्सम्) = विषय-स्रोत को (श्रवसा) = स्तोत्रों के द्वारा ही (ततर्दिथ) = नष्ट कर देता है । प्रभु का नामोच्चारण विषय-स्रोत के शोषण का सुन्दर उपाय है।
३. यह‘वृक्तबर्हिष्’ (गभस्त्योः) = ज्ञानरूपी सूर्य की और विज्ञानरूपी चन्द्रों की किरणों के [गभस्ति A ray of light, sunbeam or moonbeam] (शर्याभिः) = तीरों से [शर्या – arrow] (भरमाण: न) = इन विषयों के प्रवाह को नष्ट-सा करता हुआ होता है [भर्-हर्, वेद में ह को भ हो गया है] । वेद में विज्ञान के प्रकाश को चन्द्र किरणों से उपमित किया गया है, क्योंकि विज्ञान मनुष्य के जीवन को कुछ आह्लादमय 'चदि आह्लादे' बना देता है। ब्रह्मज्ञान यहाँ सूर्य किरणों से उपमित हुआ है, क्योंकि यह उग्र व कठिन होता हुआ भी सब मलों को जला-सा देता है । ये ज्ञान-विज्ञान की किरणें तीरों के समान हैं, इन तीरों से कामादि शत्रुओं का संहार होता है । इन तीरों को इसके हाथ में देखकर ही शत्रु इससे डरते हैं, अतः यह 'त्रस-दस्यु' इस अन्वर्थ नामवाला होता है ।
भावार्थ -
१. हम उत्तम कर्मों से प्रभु की ओर चलें । २. स्तोत्रों द्वारा इस अथाह विषय-समुद्र को सुखा दें । ३. ज्ञान-विज्ञान के किरणरूप तीरों से कामादि शत्रुओं का संहार कर डालें।