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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1531
ऋषिः - केतुराग्नेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣡ग्ने꣢ के꣣तु꣢र्वि꣣शा꣡म꣢सि꣣ प्रे꣢ष्ठः꣣ श्रे꣡ष्ठ꣢ उपस्थ꣣स꣢त् । बो꣡धा꣢ स्तो꣣त्रे꣢꣫ वयो꣣ द꣡ध꣢त् ॥१५३१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । के꣣तुः꣢ । वि꣣शा꣢म् । अ꣣सि । प्रे꣡ष्ठः꣢꣯ । श्रे꣡ष्ठः꣢꣯ । उ꣣पस्थस꣢त् । उ꣣पस्थ । स꣢त् । बो꣡ध꣢꣯ । स्तो꣣त्रे꣢ । व꣡यः꣢꣯ । द꣡ध꣢꣯त् ॥१५३१॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्ने केतुर्विशामसि प्रेष्ठः श्रेष्ठ उपस्थसत् । बोधा स्तोत्रे वयो दधत् ॥१५३१॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्ने । केतुः । विशाम् । असि । प्रेष्ठः । श्रेष्ठः । उपस्थसत् । उपस्थ । सत् । बोध । स्तोत्रे । वयः । दधत् ॥१५३१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1531
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
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पदार्थ -

‘केतु' का प्रभु-स्तवन इन शब्दों के साथ समाप्त होता है- हे (अने) = प्रकाश प्राप्त करानेवाले प्रभो ! १. आप (विशाम्) = सब प्रजाओं को (केतु:) = प्रकाश प्राप्त करानेवाले असि हो । प्रभु ने सृष्टि के प्रारम्भ में ही वेद-ज्ञान द्वारा पूर्ण प्रकाश प्राप्त कराया है। २. वे प्रभु (प्रेष्ठः) = जीव के प्रियतम हैं। संसार में सभी प्रेमों में कुछ स्वार्थ निहित होता है, अतएव उनमें अपूर्णता आ जाती है। प्रभु का प्रेम पूर्ण नि:स्वार्थ अतएव पूर्ण शुद्ध है । ३. वे प्रभु ही (श्रेष्ठः) = सर्वोत्तम हैं। ‘केतु' प्रभु को ही अपना आदर्श बनाता है। उसी के अनुरूप अपने जीवन को ढालने का प्रयत्न करता हुआ यह प्रभु का सच्चा उपासक होता है। ४. (उपस्थसत्) = हे प्रभो ! आप तो मेरे अत्यन्त निकट हो । वास्तव में तो प्रभु मुझसे भी मेरे अधिक समीप हैं, क्योंकि उनका मेरे अन्दर ही निवास है। मैं तो अपने अन्दर हो ही नहीं सकता। मेरे अन्दर रहनेवाले वे प्रभु सचमुच 'उपस्थसत्' हैं ।

हे प्रभो! आप (स्तोत्रे) = अपने स्तोता के लिए (वयः) = सात्त्विक अन्न, शक्ति व स्वस्थ शरीर [Sacrificial food, Energy, Soundness of Constituition] को (दधत्) = धारण कराने के हेतु से (बोध) = उसे ज्ञान देते हैं ।

प्रभु की प्रेरणा से स्तोता १. सात्त्विक अन्न का ही सेवन करता है । २. उसके द्वारा स्थिर शक्तिवाला होता है और ३. जीवन के अन्त तक उसका शरीर ठीक-ठाक बना रहता है । वेद-ज्ञान द्वारा प्रभु ने उस मार्ग का संकेत किया है, जिस मार्ग पर चलकर हम सचमुच जीवनों में सफल होंगे और विजेता बनकर प्रभु के समीप पहुँचने के अधिकारी होंगे।

भावार्थ -

हम सात्त्विक अन्नों के प्रयोग से स्थिर शक्ति व स्वस्थ शरीरवाले हों ।

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