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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1546
ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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इ꣣नो꣡ रा꣢जन्न꣣रतिः꣡ समि꣢꣯द्धो꣣ रौ꣢द्रो꣣ द꣡क्षा꣢य सुषु꣣मा꣡ꣳ अ꣢दर्शि । चि꣣कि꣡द्वि भा꣢꣯ति भा꣣सा꣡ बृ꣢ह꣣ता꣡सि꣢क्नीमेति꣣ रु꣡श꣢तीम꣣पा꣡ज꣢न् ॥१५४६॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣣नः꣢ । रा꣣जन् । अरतिः꣢ । स꣡मि꣢꣯द्धः । सम् । इ꣣द्धः । रौ꣡द्रः꣢꣯ । द꣡क्षा꣢꣯य । सु꣣षु꣢मान् । अ꣣दर्शि । चिकि꣢त् । वि । भा꣣ति । भासा꣢ । बृ꣣हता꣢ । अ꣡सि꣢꣯क्नीम् । ए꣣ति । रु꣡श꣢꣯तीम् । अ꣣पा꣡ज꣢न् । अ꣣प । अ꣡ज꣢꣯न् ॥१५४६॥


स्वर रहित मन्त्र

इनो राजन्नरतिः समिद्धो रौद्रो दक्षाय सुषुमाꣳ अदर्शि । चिकिद्वि भाति भासा बृहतासिक्नीमेति रुशतीमपाजन् ॥१५४६॥


स्वर रहित पद पाठ

इनः । राजन् । अरतिः । समिद्धः । सम् । इद्धः । रौद्रः । दक्षाय । सुषुमान् । अदर्शि । चिकित् । वि । भाति । भासा । बृहता । असिक्नीम् । एति । रुशतीम् । अपाजन् । अप । अजन् ॥१५४६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1546
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘आप्त्य'= प्राप्त करनेवालों में उत्तम तथा 'त्रि-त' = काम, क्रोध, लोभ तीनों को तैरे हुए है । इसका जीवन निम्न बातों से युक्त है ।

१. (इनः) = स्वामी । यह इन्द्रियों का स्वामी बनता है न कि दास । 

२. (राजन्) = [well regulated] यह नियमित जीवनवाला होता है। (‘सूर्याचन्द्रमसाविव') = सूर्य-चन्द्रमा की चाल से चलता है। 'कालभोजी' होता है ।

३. (अ-रतिः) = किसी भी भौतिक वस्तु के प्रति यह आसक्त नहीं होता । 

४. (समिद्धः) = पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक के पदार्थों के ज्ञान की समिधाओं से यह अपनी ज्ञानाग्नि को समिद्ध करता है ।

५. (रौद्र:) = यह 'रुत्-र' = ज्ञान देनेवाला होता है ।

६. (दक्षाय) = यह सब उन्नति, शक्ति व वृद्धि के लिए ही होता है । यह कभी अवनत नहीं होता। 

७. (सुषुमान् अदर्शि) = [सु-उत्तम] उन्नति के लिए ही यह अच्छाईवाला होता चलता है - 'सु' 'सु' वाला ही दिखता है, सब दुरितों को दूर करता चलता है।

८. (चिकित्) = यह नचिकेता न रहकर ज्ञानी तथा अनुभवी बनकर ‘चिकित्' बन गया है।

९. (बृहता भासा विभासि) = यह विशाल ज्ञानदीप्ति से चमकता है । 

१०. और (असिक्नीम्) = कृष्णवर्णा तमोमयी प्रकृति को (रुशतीम्) = जो इसका संहार करती है उसे (अपअजन्) = दूर फेंकता हुआ (एति)= गति करता है, अर्थात् आगे और आगे बढ़ता चलता है। 

भावार्थ -

हम ‘इन' बनकर 'आप्त्य' बनें, जितेन्द्रिय बनकर प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनें ।

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