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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1550
ऋषिः - उशना काव्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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दा꣡शे꣢म꣣ क꣢स्य꣣ म꣡न꣢सा य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ सहसो यहो । क꣡दु꣢ वोच इ꣣दं꣡ नमः꣢꣯ ॥१५५०॥

स्वर सहित पद पाठ

दा꣡शे꣢꣯म । क꣡स्य꣢꣯ । म꣡न꣢꣯सा । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । स꣣हसः । यहो । क꣢त् । उ꣣ । वोचे । इद꣢म् । न꣡मः꣢꣯ ॥१५५०॥


स्वर रहित मन्त्र

दाशेम कस्य मनसा यज्ञस्य सहसो यहो । कदु वोच इदं नमः ॥१५५०॥


स्वर रहित पद पाठ

दाशेम । कस्य । मनसा । यज्ञस्य । सहसः । यहो । कत् । उ । वोचे । इदम् । नमः ॥१५५०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1550
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

पिछले मन्त्र में प्रभु के वाणी से अतीत होने का उल्लेख था । इस मन्त्र में उसके मन से भी अतीत होने का वर्णन करते हैं। प्रभु के गुणों को अपनाने की प्रबल कामनावाला 'उशना: ' जितनाजितना प्रभु के गुणों का मनन करता है, उतना उतना वे प्रभु उसे बड़े प्रतीत होते हैं। उसका मन प्रभु की महिमा का पूर्णतया आकलन नहीं कर पाता। ‘उशना' देखता है कि वे प्रभु 'यज्ञ' रूप हैं— वे ही पूजनीय हैं—वे ही संसार के सारे पदार्थों के अन्दर सङ्गति स्थापित किये हुए हैं, जैसेकि एक सूत्र मणियों से एकता स्थापित किये हुए होता है। वे प्रभु हमारे लिए प्रत्येक आवश्यक वस्तु हमें दे रहे हैं। उशना इन 'यज्ञ' रूप प्रभु से कहता है कि हे (सहसः यहो) = बल के पुत्र – शक्ति के पुतले, सर्वशक्तिमान् प्रभो ! (यज्ञस्य) = यज्ञरूप आपके प्रति (कस्य मनसा) = किसके मन से (दाशेम) = हम अपने को अर्पित करें। मैं आपका भक्त अपने मन को आपके प्रति अर्पित करना चाहता हूँ, परन्तु आपका पूर्ण चिन्तन न कर पा सकने से अपने कार्य में पूरा सफल नहीं होता। हे प्रभो ! न जाने (कत्) = [कदा] कब (उ) = ही (इदं नमः) = इस नमस्कार के वचन को (वोच:) = मैं आपके प्रति बोल पाऊँगा ? मैं तो आपको अपनी वाणी व मन से अतीत ही पाता हूँ। आपकी महिमा के चिन्तन में उलझा हुआ यह न आपकी महिमा का अन्त पाता है और न ही अन्यत्र जाने की उत्सुकतावाला होता है। आपकी महिमा के चिन्तन में ही यह उलझा रह जाता है ।

भावार्थ -

हे प्रभो ! हमारा मन सदा आपके चिन्तन में ही उलझा रहे ।

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