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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1550
    ऋषिः - उशना काव्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    41

    दा꣡शे꣢म꣣ क꣢स्य꣣ म꣡न꣢सा य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ सहसो यहो । क꣡दु꣢ वोच इ꣣दं꣡ नमः꣢꣯ ॥१५५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दा꣡शे꣢꣯म । क꣡स्य꣢꣯ । म꣡न꣢꣯सा । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । स꣣हसः । यहो । क꣢त् । उ꣣ । वोचे । इद꣢म् । न꣡मः꣢꣯ ॥१५५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दाशेम कस्य मनसा यज्ञस्य सहसो यहो । कदु वोच इदं नमः ॥१५५०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दाशेम । कस्य । मनसा । यज्ञस्य । सहसः । यहो । कत् । उ । वोचे । इदम् । नमः ॥१५५०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1550
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर प्रश्न करते हैं।

    पदार्थ

    हे (सहसः यहो) बल के पुत्र अर्थात् अत्यन्त बली परमेश्वर ! (कस्य यज्ञस्य मनसा) किस यज्ञ के मन से, हम आपको (दाशेम) आत्मसमर्पण करें ? (कत् उ) कैसे मैं (इदं नमः) इस नमस्कार को (वोचे) आपके प्रति कहूँ ? ॥२॥

    भावार्थ

    अनेक सकाम यज्ञ और निष्काम यज्ञ प्रचलित हैं। पर मैं तो हे जगदीश्वर ! आपकी उपासना ही जिसका प्रयोजन है, ऐसे यज्ञ से ही आपको आत्मसमर्पण करता हूँ, किसी स्वार्थ को मन में रखकर नहीं। कैसे मैं आपको नमस्कार करूँ ? कुछ लोग साष्टाङ्ग प्रणाम करते हैं, कोई अञ्जलि बाँधकर प्रणाम करते हैं, कोई मूर्ति पर सिर नवाकर प्रणाम करते हैं, पर मैं तो चित्त को ही तेरे प्रति नवाता हूँ, शरीर के अङ्गों को नहीं ॥२॥

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    पदार्थ

    (कस्य यज्ञस्य) सुखस्वरूप यजनीय—(सहसः-यहो ‘यहोः’) बलवान्—२ सर्वत्र गतिमान् सर्वत्र प्राप्त३ परमात्मा के लिये४ (मनसा-इदं नमः) मन से यह नम्र वचन—प्रार्थना वचन (कद्-उ वोचे) कभी भी कहूँ—बोलूँ उसे वह स्वीकार करता है॥२॥

    विशेष

    <br>

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    विषय

    मन से भी अतीत

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र में प्रभु के वाणी से अतीत होने का उल्लेख था । इस मन्त्र में उसके मन से भी अतीत होने का वर्णन करते हैं। प्रभु के गुणों को अपनाने की प्रबल कामनावाला 'उशना: ' जितनाजितना प्रभु के गुणों का मनन करता है, उतना उतना वे प्रभु उसे बड़े प्रतीत होते हैं। उसका मन प्रभु की महिमा का पूर्णतया आकलन नहीं कर पाता। ‘उशना' देखता है कि वे प्रभु 'यज्ञ' रूप हैं— वे ही पूजनीय हैं—वे ही संसार के सारे पदार्थों के अन्दर सङ्गति स्थापित किये हुए हैं, जैसेकि एक सूत्र मणियों से एकता स्थापित किये हुए होता है। वे प्रभु हमारे लिए प्रत्येक आवश्यक वस्तु हमें दे रहे हैं। उशना इन 'यज्ञ' रूप प्रभु से कहता है कि हे (सहसः यहो) = बल के पुत्र – शक्ति के पुतले, सर्वशक्तिमान् प्रभो ! (यज्ञस्य) = यज्ञरूप आपके प्रति (कस्य मनसा) = किसके मन से (दाशेम) = हम अपने को अर्पित करें। मैं आपका भक्त अपने मन को आपके प्रति अर्पित करना चाहता हूँ, परन्तु आपका पूर्ण चिन्तन न कर पा सकने से अपने कार्य में पूरा सफल नहीं होता। हे प्रभो ! न जाने (कत्) = [कदा] कब (उ) = ही (इदं नमः) = इस नमस्कार के वचन को (वोच:) = मैं आपके प्रति बोल पाऊँगा ? मैं तो आपको अपनी वाणी व मन से अतीत ही पाता हूँ। आपकी महिमा के चिन्तन में उलझा हुआ यह न आपकी महिमा का अन्त पाता है और न ही अन्यत्र जाने की उत्सुकतावाला होता है। आपकी महिमा के चिन्तन में ही यह उलझा रह जाता है ।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! हमारा मन सदा आपके चिन्तन में ही उलझा रहे ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (सहसः यहो*) बल और सहनशीलता से प्राप्त करने और स्मरण करने योग्य परमात्मन् ! (कस्य) किस (यज्ञस्य) आत्म को (मनसा) मन या अन्तःकरण से (दाशेम) आपके समर्पण करें ! (इदं) यह (नमः) नमस्कार (कत्) किस विध या किस किस समय है (वोचं) उच्चारण करें, अर्थात् मन से इस आत्मा को तो दे ही रक्खा और क्या क्या दें। और सदा ही तो आपका स्मरण करते हैं, और हम कब कब करें।

    टिप्पणी

    *यहुरित्यपत्यनामसु पठितः। यहुर्यातेह् र्वयतेश्चौरादिकात्कुप्रत्यये मृगप्वादित्वान्निपातनम्। यातश्चाहूतश्चेति माधवः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि प्रश्नं कुरुते।

    पदार्थः

    हे (सहसः यहो) बलस्य पुत्र ! अतिशय बलवन् परमेश ! (कस्य यज्ञस्य मनसा) कस्य यज्ञस्य अभिलाषेण, वयम् त्वाम् (दाशेम) आत्मानं समर्पयेम। (कत् उ) कथं खलु, अहम् (इदं नमः) इमं नमस्कारम् (वोचे)२ त्वां प्रति ब्रूयाम् ? ॥२॥

    भावार्थः

    अनेके सकामयज्ञा निष्कामयज्ञाश्च प्रचलिताः सन्ति। परमहं तु हे जगदीश्वर त्वदुपासनैकप्रयोजनेन यज्ञेनैव तुभ्यमात्मानं समर्पये, न तु कमपि स्वार्थं मनसि निधाय। कथमहं त्वां नमस्कुर्याम् ? केचित् साष्टाङ्गं प्रणमन्ति, केचिद् बद्धाञ्जलयः प्रणमन्ति, केचिन्मूर्तौ शिरो नत्वा प्रणमन्ति। परमहं तु चित्तमेव त्वयि नमयामि, न शरीराङ्गानि ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God! realizable through Yoga and humility, what soul should we dedicate to Thee with devotion? When should I utter this reverent word ?

    Translator Comment

    We have already dedicated the soul to Thee. There is nothing much to be dedicated. I remember and praise thee at all times, hence there is no specific time when I should pray unto God.

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    Meaning

    Agni, to which mighty, potent, adorable power other than you, shall we offer our sincere homage, when and where present these words of prayer? (Rg. 8-84-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (कस्य यज्ञस्य) સુખ સ્વરૂપ યજનીય, (सहसः यहो "यहोः") બળવાન સર્વત્ર ગતિમાન સર્વત્ર પ્રાપ્ત પરમાત્માને માટે (मनसा इदं नमः) મનથી એ વિનમ્ર વચન-પ્રાર્થના વચન (कद् उ वोचे) ક્યારેય પણ કહું-બોલું તેનો તે સ્વીકાર કરે છે. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अनेक सकाम व निष्काम यज्ञ प्रचलित आहेत; परंतु हे जगदीश्वरा! तुझी उपासना हेच ज्याचे प्रयोजन आहे अशा यज्ञाद्वारेच मी आत्मसमर्पण करतो एखादा स्वार्थ मनात बाळगून नाही. मी तुला कसा नमस्कार करू? काही लोक साष्टांग नमस्कार करतात, कोणी हात जोडून नमस्कार करतात, कोणी मूर्तीला वाकून नमस्कार करतात; परंतु मी माझ्या चित्तालाच तुझ्यापुढे झुकवून नमस्कार करतो, शरीराचे अंग नव्हे. ॥२॥

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