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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1552
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢ह्य꣣ग्नि꣢भि꣣र्हो꣡ता꣢रं त्वा वृणीमहे । आ꣡ त्वाम꣢꣯नक्तु꣣ प्र꣡य꣢ता ह꣣वि꣡ष्म꣢ती꣣ य꣡जि꣢ष्ठं ब꣣र्हि꣢रा꣣स꣡दे꣢ ॥१५५२॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । आ । या꣣हि । अग्नि꣡भिः꣢ । हो꣡ता꣢꣯रम् । त्वा꣣ । वृणीमहे । आ꣢ । त्वाम् । अ꣣नक्तु । प्र꣡य꣢꣯ता । प्र । य꣣ता । हवि꣡ष्म꣢ती । य꣡जि꣢꣯ष्ठम् । ब꣣र्हिः꣢ । आ꣣स꣡दे꣢ । आ꣣ । स꣡दे꣢꣯ ॥१५५२॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्न आ याह्यग्निभिर्होतारं त्वा वृणीमहे । आ त्वामनक्तु प्रयता हविष्मती यजिष्ठं बर्हिरासदे ॥१५५२॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्ने । आ । याहि । अग्निभिः । होतारम् । त्वा । वृणीमहे । आ । त्वाम् । अनक्तु । प्रयता । प्र । यता । हविष्मती । यजिष्ठम् । बर्हिः । आसदे । आ । सदे ॥१५५२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1552
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि‘भर्गः' है—[भ्रस्ज् पाके] जिसने अपना ठीक परिपाक किया है। मतापिता व आचार्यरूप अग्नियों में तो इसका उत्तम परिपाक हुआ ही था अब यह विद्वान् अतिथि व परमात्मारूप अग्नि में भी अपना परिपाक करना चाहता है और प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (अग्ने) = मेरे जीवन के ठीक परिपाक करनेवाले प्रभो ! (अग्निभिः) = विद्वान् अतिथिरूप अग्नियों के द्वारा आप हमें सदा (आयाहि) = प्राप्त होओ। विद्वान् अतिथियों के उपदेश तो हमें धर्म मार्ग पर परिपक्व करते ही रहें - आपका चिन्तन हमारी बुद्धियों को सदा उत्तम प्रेरणा देनेवाला हो। इस प्रकार हम ‘पञ्चाग्नि' बन पाएँ । ‘माता, पिता, आचार्य, अतिथि व परमात्म'-रूप अग्नियों में अपना ठीक से परिपाक करनेवाले हों। 

हे प्रभो ! (होतारम्) = सब पदार्थों के देनेवाले (त्वा) = आपका ही हम (वृणीमहे) = वरण करें। आपके वरण से सांसारिक आवश्यक पदार्थ तो प्राप्त हो ही जाएँगे ।

हे प्रभो ! हमारी कामना यह है कि (यजिष्ठम्) = सर्वाधिक सङ्गति करने योग्य आपको (बर्हिः) = अपने हृदयान्तरिक्ष में (आसदे) = बिठाने के लिए (प्रयता) = पवित्र (हविष्मती) = त्याग की वृत्तिवाली हमारी चित्तवृत्ति (त्वाम्) = आपको (आ) = सर्वथा (अनक्तु) = प्राप्त हो । हमारी चित्तवृत्ति अपवित्र व स्वार्थपूर्ण होने पर ही प्रभु से दूर होती है। हम उसे अधिक-से-अधिक पवित्र व त्यागवाला बनाएँ । यह चित्तवृत्ति प्रभु के अभिमुख ले जानेवाली हो । अन्त में वे प्रभु ही सर्वाधिक सङ्गति के योग्य हैं — वे ही हमारा अधिकाधिक कल्याण करनेवाले हैं। हम जितना प्रभु के समीप होंगे उतना ही परिपक्व बुद्धिवाले व तेजस्वी बन पाएँगे। यही ‘भर्ग:’ [परिपक्व] बनने का प्रकार है ।

भावार्थ -

हमें पाँचों अग्नियाँ प्राप्त हों और हम ठीक परिपक्व बनें।

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