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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1552
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
    26

    अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢ह्य꣣ग्नि꣢भि꣣र्हो꣡ता꣢रं त्वा वृणीमहे । आ꣡ त्वाम꣢꣯नक्तु꣣ प्र꣡य꣢ता ह꣣वि꣡ष्म꣢ती꣣ य꣡जि꣢ष्ठं ब꣣र्हि꣢रा꣣स꣡दे꣢ ॥१५५२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡ग्ने꣢꣯ । आ । या꣣हि । अग्नि꣡भिः꣢ । हो꣡ता꣢꣯रम् । त्वा꣣ । वृणीमहे । आ꣢ । त्वाम् । अ꣣नक्तु । प्र꣡य꣢꣯ता । प्र । य꣣ता । हवि꣡ष्म꣢ती । य꣡जि꣢꣯ष्ठम् । ब꣣र्हिः꣢ । आ꣣स꣡दे꣢ । आ꣣ । स꣡दे꣢꣯ ॥१५५२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्न आ याह्यग्निभिर्होतारं त्वा वृणीमहे । आ त्वामनक्तु प्रयता हविष्मती यजिष्ठं बर्हिरासदे ॥१५५२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । आ । याहि । अग्निभिः । होतारम् । त्वा । वृणीमहे । आ । त्वाम् । अनक्तु । प्रयता । प्र । यता । हविष्मती । यजिष्ठम् । बर्हिः । आसदे । आ । सदे ॥१५५२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1552
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमात्मारूप अग्नि का आह्वान है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्रनेता परमात्मन् ! आप (अग्निभिः) तेजों के साथ (आ याहि) आओ। (होतारम्) दाता (त्वा) आपको, हम (वृणीमहे) भजते हैं। (यजिष्ठं त्वाम्) हमारे साथ अतिशय सङ्गम करनेवाले आपको, हमारी (हविष्मती) समर्पणयुक्त (प्रयता) पवित्र प्रज्ञा (बर्हिः) हृदयासन पर (आसदे) बैठने के लिए (अनक्तु) प्रकट करे ॥१॥

    भावार्थ

    परमेश्वर जब स्तोता के अन्तरात्मा में प्रबल संकल्प, उत्साह, वीरता और आशावाद की अग्नियों के साथ आता है, तब स्तोता के मार्ग से सब विघ्न हट जाते हैं और लक्ष्यप्राप्ति सुनिश्चित हो जाती है ॥१॥

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    पदार्थ

    (अग्ने-आयाहि) हे ज्ञानप्रकाश स्वरूप परमात्मन्! तू मेरे हृदय में आ (त्वा होतारम्) तुझ अध्यात्मयज्ञ के ऋत्विक् को (अग्निभिः) ब्राह्मणों के७ समान८ (वृणीमहे) हम वरते हैं (त्वां यजिष्ठम्) तुझ अत्यन्त याजक को (प्रयता हविष्मती) संयता आत्मसमर्पणवाली९ स्तुति (अनक्तु) स्निग्ध करे—हमारी ओर द्रवित करे (बर्हिः-आसदे) हृदयाकाश में आ बैठने के लिये॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—भर्गः (तेजस्वी उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—विषमा बृहती॥<br>

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    विषय

    परिपक्वता

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि‘भर्गः' है—[भ्रस्ज् पाके] जिसने अपना ठीक परिपाक किया है। मतापिता व आचार्यरूप अग्नियों में तो इसका उत्तम परिपाक हुआ ही था अब यह विद्वान् अतिथि व परमात्मारूप अग्नि में भी अपना परिपाक करना चाहता है और प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (अग्ने) = मेरे जीवन के ठीक परिपाक करनेवाले प्रभो ! (अग्निभिः) = विद्वान् अतिथिरूप अग्नियों के द्वारा आप हमें सदा (आयाहि) = प्राप्त होओ। विद्वान् अतिथियों के उपदेश तो हमें धर्म मार्ग पर परिपक्व करते ही रहें - आपका चिन्तन हमारी बुद्धियों को सदा उत्तम प्रेरणा देनेवाला हो। इस प्रकार हम ‘पञ्चाग्नि' बन पाएँ । ‘माता, पिता, आचार्य, अतिथि व परमात्म'-रूप अग्नियों में अपना ठीक से परिपाक करनेवाले हों। 

    हे प्रभो ! (होतारम्) = सब पदार्थों के देनेवाले (त्वा) = आपका ही हम (वृणीमहे) = वरण करें। आपके वरण से सांसारिक आवश्यक पदार्थ तो प्राप्त हो ही जाएँगे ।

    हे प्रभो ! हमारी कामना यह है कि (यजिष्ठम्) = सर्वाधिक सङ्गति करने योग्य आपको (बर्हिः) = अपने हृदयान्तरिक्ष में (आसदे) = बिठाने के लिए (प्रयता) = पवित्र (हविष्मती) = त्याग की वृत्तिवाली हमारी चित्तवृत्ति (त्वाम्) = आपको (आ) = सर्वथा (अनक्तु) = प्राप्त हो । हमारी चित्तवृत्ति अपवित्र व स्वार्थपूर्ण होने पर ही प्रभु से दूर होती है। हम उसे अधिक-से-अधिक पवित्र व त्यागवाला बनाएँ । यह चित्तवृत्ति प्रभु के अभिमुख ले जानेवाली हो । अन्त में वे प्रभु ही सर्वाधिक सङ्गति के योग्य हैं — वे ही हमारा अधिकाधिक कल्याण करनेवाले हैं। हम जितना प्रभु के समीप होंगे उतना ही परिपक्व बुद्धिवाले व तेजस्वी बन पाएँगे। यही ‘भर्ग:’ [परिपक्व] बनने का प्रकार है ।

    भावार्थ

    हमें पाँचों अग्नियाँ प्राप्त हों और हम ठीक परिपक्व बनें।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमात्माग्निमाह्वयति।

    पदार्थः

    हे (अग्ने) अग्रनेतः परमात्मन् ! त्वम् (अग्निभिः) तेजोभिः सह (आयाहि) आगच्छ, (होतारम्) दातारम् (त्वा) त्वाम्, वयम् (वृणीमहे) संभजामहे। (यजिष्ठं त्वाम्) अतिशयेन यष्टारम्, अस्माभिः सह संगमकारिणं त्वाम्, अस्माकम् (हविष्मती) समर्पणयुक्ता (प्रयता) पवित्रा प्रज्ञा (बर्हिः) हृदयासनम् (आसदे) आसत्तुम् (अनक्तु) व्यक्तं करोतु। [अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु, रुधादिः] ॥१॥

    भावार्थः

    परमेश्वरो हि यदा स्तोतुरन्तरात्मानं प्रबलसंकल्पस्योत्साहस्य वीरताया आशावादस्य चाग्निभिः सहागच्छति तदा स्तोतुर्मार्गात् सर्वे विघ्ना अपयन्ति लक्ष्यप्राप्तिश्च सुनिश्चिता जायते ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, let us realise Thee with Thy lustres. We accept Thee, 4s the Giver of joys. May we, with refined intellect recognise, in the inmost recesses of the heart, Thee, most Adorable!

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    Meaning

    Agni, universal fire of life, come with other fires such as the sun. We opt to worship you alone, the cosmic yajamana. The yajaka people holding ladlefuls of havi would honour and celebrate you and seat you on the holy grass. (Rg. 8-60-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्ने आयाहि) હે જ્ઞાનપ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું મારા હૃદયમાં આવ (त्वा होतारम्) તને અધ્યાત્મયજ્ઞના ઋત્વિજને (अग्निभिः) બ્રાહ્મણોની સમાન (वृणीमहे) અમે વરણ કરીએ છીએ. (त्वां यजिष्ठम्) તને અત્યંત યાજકને (प्रयता हविष्मती) સંયમ દ્વારા એકાગ્ર કરેલી આત્મ સમર્પણવાળી સ્તુતિ (अनक्तु) સ્નિગ્ધ કરે-અમારી તરફ દ્રવિત કરે. (बर्हिः आसदे) હૃદયાકાશમાં બેસવા માટે. [પ્રાપ્ત થા.] (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर जेव्हा स्तोत्याच्या अंतरात्म्यात प्रबल संकल्प, उत्साह, वीरता व आशावादाच्या अग्नीबरोबर येतो, तेव्हा स्तोत्याच्या मार्गातील सर्व विघ्ने दूर होतात व लक्ष्य प्राप्ती सुनिश्चित होते. ॥१॥

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