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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1565
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - आनुष्टुभः प्रगाथः (गायत्री) स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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यं꣡ जना꣢꣯सो ह꣣वि꣡ष्म꣢न्तो मि꣣त्रं꣢꣫ न स꣣र्पि꣡रा꣢सुतिम् । प्र꣣श꣡ꣳस꣢न्ति꣣ प्र꣡श꣢स्तिभिः ॥१५६५॥

स्वर सहित पद पाठ

यम् । ज꣡ना꣢꣯सः । ह꣣वि꣡ष्म꣢न्तः । मि꣣त्र꣢म् । मि꣣ । त्र꣢म् । न । स꣣र्पि꣡रा꣢सुतिम् । स꣣र्पिः꣢ । आ꣣सुतिम् । प्रश꣡ꣳस꣢न्ति । प्र꣣ । श꣡ꣳस꣢꣯न्ति । प्र꣡श꣢꣯स्तिभिः । प्र । श꣣स्तिभिः ॥१५६५॥


स्वर रहित मन्त्र

यं जनासो हविष्मन्तो मित्रं न सर्पिरासुतिम् । प्रशꣳसन्ति प्रशस्तिभिः ॥१५६५॥


स्वर रहित पद पाठ

यम् । जनासः । हविष्मन्तः । मित्रम् । मि । त्रम् । न । सर्पिरासुतिम् । सर्पिः । आसुतिम् । प्रशꣳसन्ति । प्र । शꣳसन्ति । प्रशस्तिभिः । प्र । शस्तिभिः ॥१५६५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1565
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

गत मन्त्र में कहा था कि हम प्रभु के लिए मननपूर्वक स्तुतिवचनों का उच्चारण करते हैं। उसी प्रसङ्ग में कहते हैं कि हम इन वचनों का उच्चारण उस प्रभु के लिए करते हैं (यम्) = जिस प्रभु को (जनासः) = अपना विकास करनेवाले (हविष्मन्तः) = [हु दानादनयोः] सदा दानपूर्वक अदन की वृत्तिवाले स्तोता लोग प्रशस्तिभिः-स्तुतिवचनों से प्रशंसन्ति स्तुत करते हैं । जो प्रभु -

१. (मित्रं न) = पाप से बचानेवाले [प्रमीतेः त्रायते] सदा स्नेह करनेवाले [मिद् स्नेह] मित्र के समान (सर्पिः) = [सृप् गतौ] गतिदेनेवाला है। जिस प्रकार एक मित्र (‘पापात् निवारयति योजयते हिताय') पाप से निवारण करता है और हित में प्रवृत्त करता है उसी प्रकार ये अन्त:स्थित प्रभु सदा प्रेरणा के द्वारा हमें पापों से दूर कर रहे हैं और हित में प्रवृत्त कर रहे हैं। इस प्रकार वे प्रभु हमारे ('स नो बन्धुः ') सच्चे साथी हैं, 'प्रियम् इन्द्रस्य' जीवात्मा के प्रिय मित्र हैं ।

२. इस प्रकार पाप से पृथक् तथा पुण्य में प्रवृत्त करके वे प्रभु (आसुतिम्) = [आ=Allround] व्यापक ऐश्वर्य [षु= ऐश्वर्य] को प्राप्त करानेवाले हैं। वे प्रभु ही अन्नमयकोष में तेज को, प्राणमयकोश में वीर्य को, मनोमयकोश में ओज व बल को, विज्ञानमयकोश में मन्यु को तथा आनन्दमयकोश में सहस् को प्राप्त कराके एक सच्चे भक्त को, ‘आ-सुति' बना डालते हैं - सब कोशों के ऐश्वर्य = भूति से परिपूर्ण कर देते हैं । ऐश्वर्योत्पादक होने से वे प्रभु आसुति हैं । भक्त लोग प्रभु को ‘मित्र के समान हित में प्रेरक तथा ऐश्वर्यजनक के रूप में ही स्मरण करते हैं । इस प्रकार प्रभु-प्रेरणा से पवित्र इन्द्रियोंवाले होकर ये भक्त इस मन्त्र के ऋषि ‘गोपवन' – इन्द्रियों को पवित्र करनेवाले बन पाते हैं । (‘कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्') – इन सप्त इन्द्रियों को पूर्णतया वशीभूत कर लेनेवाले ये 'सप्तवधि' हो जाते हैं ।

भावार्थ -

प्रभु हमारे सच्चे मित्र हैं, हम उनकी प्रेरणा को सुनें और व्यापक ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले बनें ।

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