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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1565
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - आनुष्टुभः प्रगाथः (गायत्री) स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    19

    यं꣡ जना꣢꣯सो ह꣣वि꣡ष्म꣢न्तो मि꣣त्रं꣢꣫ न स꣣र्पि꣡रा꣢सुतिम् । प्र꣣श꣡ꣳस꣢न्ति꣣ प्र꣡श꣢स्तिभिः ॥१५६५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । ज꣡ना꣢꣯सः । ह꣣वि꣡ष्म꣢न्तः । मि꣣त्र꣢म् । मि꣣ । त्र꣢म् । न । स꣣र्पि꣡रा꣢सुतिम् । स꣣र्पिः꣢ । आ꣣सुतिम् । प्रश꣡ꣳस꣢न्ति । प्र꣣ । श꣡ꣳस꣢꣯न्ति । प्र꣡श꣢꣯स्तिभिः । प्र । श꣣स्तिभिः ॥१५६५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं जनासो हविष्मन्तो मित्रं न सर्पिरासुतिम् । प्रशꣳसन्ति प्रशस्तिभिः ॥१५६५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । जनासः । हविष्मन्तः । मित्रम् । मि । त्रम् । न । सर्पिरासुतिम् । सर्पिः । आसुतिम् । प्रशꣳसन्ति । प्र । शꣳसन्ति । प्रशस्तिभिः । प्र । शस्तिभिः ॥१५६५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1565
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अब यज्ञाग्नि की प्रशंसा करते हैं।

    पदार्थ

    (सर्पिरासुतिम्) जिसमें घृत की आहुति दी जाती है, ऐसे (यम्) जिस यज्ञाग्नि की (हविष्मन्तः) सुगन्धित, मीठे, पुष्टिवर्धक, आरोग्यवर्धक, कस्तूरी, केसर, घी, दूध, शक्कर, शहद, गुडूची आदि हव्यों से युक्त (जनासः) याज्ञिक मनुष्य (मित्रं न) मित्र के समान (प्रशस्तिभिः) प्रशस्तियों से (प्रशंसन्ति) प्रशंसा करते हैं, उस अग्नि की मैं भी (स्तुषे) स्तुति करता हूँ । [यहाँ ‘स्तुषे’ पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है] ॥२॥

    भावार्थ

    आध्यात्मिक जीवन बिताने के इच्छुक मनुष्यों को चाहिए कि वे अग्निहोत्र से परमात्माग्नि में अपनी आत्मा के होम की प्रेरणा ग्रहण करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (हविष्मन्तः-जनासः) पवित्र आत्मरूप भेंटवाले६ उपासकजन (सर्पिः-आसुतिं मित्रं न) प्राप्त होनेवाले७ साक्षात् मित्र समान (यम्) जिस प्रकाशस्वरूप परमात्मा को (प्रशस्तिभिः-प्रशंसन्ति) प्रशंसाओं से—स्तुतियों से प्रशंसित करते हैं वह सिद्ध उपास्य हैं॥२॥

    विशेष

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    विषय

    मित्र के समान प्रेरक

    पदार्थ

    गत मन्त्र में कहा था कि हम प्रभु के लिए मननपूर्वक स्तुतिवचनों का उच्चारण करते हैं। उसी प्रसङ्ग में कहते हैं कि हम इन वचनों का उच्चारण उस प्रभु के लिए करते हैं (यम्) = जिस प्रभु को (जनासः) = अपना विकास करनेवाले (हविष्मन्तः) = [हु दानादनयोः] सदा दानपूर्वक अदन की वृत्तिवाले स्तोता लोग प्रशस्तिभिः-स्तुतिवचनों से प्रशंसन्ति स्तुत करते हैं । जो प्रभु -

    १. (मित्रं न) = पाप से बचानेवाले [प्रमीतेः त्रायते] सदा स्नेह करनेवाले [मिद् स्नेह] मित्र के समान (सर्पिः) = [सृप् गतौ] गतिदेनेवाला है। जिस प्रकार एक मित्र (‘पापात् निवारयति योजयते हिताय') पाप से निवारण करता है और हित में प्रवृत्त करता है उसी प्रकार ये अन्त:स्थित प्रभु सदा प्रेरणा के द्वारा हमें पापों से दूर कर रहे हैं और हित में प्रवृत्त कर रहे हैं। इस प्रकार वे प्रभु हमारे ('स नो बन्धुः ') सच्चे साथी हैं, 'प्रियम् इन्द्रस्य' जीवात्मा के प्रिय मित्र हैं ।

    २. इस प्रकार पाप से पृथक् तथा पुण्य में प्रवृत्त करके वे प्रभु (आसुतिम्) = [आ=Allround] व्यापक ऐश्वर्य [षु= ऐश्वर्य] को प्राप्त करानेवाले हैं। वे प्रभु ही अन्नमयकोष में तेज को, प्राणमयकोश में वीर्य को, मनोमयकोश में ओज व बल को, विज्ञानमयकोश में मन्यु को तथा आनन्दमयकोश में सहस् को प्राप्त कराके एक सच्चे भक्त को, ‘आ-सुति' बना डालते हैं - सब कोशों के ऐश्वर्य = भूति से परिपूर्ण कर देते हैं । ऐश्वर्योत्पादक होने से वे प्रभु आसुति हैं । भक्त लोग प्रभु को ‘मित्र के समान हित में प्रेरक तथा ऐश्वर्यजनक के रूप में ही स्मरण करते हैं । इस प्रकार प्रभु-प्रेरणा से पवित्र इन्द्रियोंवाले होकर ये भक्त इस मन्त्र के ऋषि ‘गोपवन' – इन्द्रियों को पवित्र करनेवाले बन पाते हैं । (‘कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्') – इन सप्त इन्द्रियों को पूर्णतया वशीभूत कर लेनेवाले ये 'सप्तवधि' हो जाते हैं ।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे सच्चे मित्र हैं, हम उनकी प्रेरणा को सुनें और व्यापक ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले बनें ।

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    विषय

    हमारे पुत्र वेद सुनें

    शब्दार्थ

    (ये) जो (न:) हमारे ( सूनव:) पुत्र हैं वे (अमृतस्य) अमर, अखण्ड, अविनाशी प्रभु की ( गिरः) वेदवाणियों को (शृण्वन्तु) सुनें और उसे सुनकर (नः) हमारे लिए (सुमृळीका:) उत्तम सुखकारी (भवन्तु ) हों ।

    भावार्थ

    प्रत्येक घर में प्रतिदिन वेद-पाठ होना चाहिए । जब हमारे घरों में यज्ञ और हवन होंगे, स्वाहा और स्वधाकार की ध्वनि उठेगी, वेदों का उद्घोष होगा तभी हमारे पुत्र वेद-ज्ञान को सुन सकेंगे । वेद सभी ज्ञान और विज्ञान का मूल है और अखिल शिक्षाओं का भण्डार है । जब हमारे पुत्र वेद के इस प्रकार के मन्त्रों को सुनेंगे अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु सम्मनाः । (अथर्ववेद ३ ।३० । २) 'पुत्र पिता के अनुकूल चलनेवाला हो और माता के साथ समान मनवाला हो ।' तो ये शिक्षाएँ उनके जीवन में आएँगी। इन वैदिक शिक्षाओं पर आचरण करते हुए वे अपने माता-पिता के लिए, परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए सुख, शान्ति, मङ्गल और कल्याण का कारण बनेंगे ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (हविष्मन्तः) ज्ञानवान् (जनासः) पुरुष (यं) जिस (सर्पिः-आसुतिं) सर्पणशील इन्द्रिय और मन को प्रेरणा करने हारे, अथवा तेज को देने हारे, अथवा घृत की आहुति के समान सर्पणशील प्राणरूप इन्द्रिय और मन को अपने भीतर आहुत अर्थात् लीन करने हारे अग्नि को (मित्रं न) मित्र के समान (प्रशस्तिभिः) उत्तम स्तुतियों द्वारा (प्र शंसन्ति) वर्णन करते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ यज्ञाग्नेः प्रशंसामाह।

    पदार्थः

    (सर्पिरासुतिम्) सर्पिः घृतम् आसूयते हूयते यस्मिन् तम् (यम्) यज्ञाग्निम् (हविष्मन्तः) सुगन्धिमिष्टपुष्ट्यारोग्यवर्धकैः कस्तूरीकेसरघृतदुग्धशर्करामधुगुडूच्यादिभिः हव्यैर्युक्ताः (जनासः) याज्ञिकाः मनुष्याः (मित्रं न) सखायमिव (प्रशस्तिभिः) प्रशंसावचनैः (प्रशंसन्ति) स्तुवन्ति, तम् अग्निम् अहमपि (स्तुषे) स्तौमि इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते ॥२॥

    भावार्थः

    आध्यात्मिकं जीवनं यापयितुमिच्छुभिर्जनैरग्निहोत्रेण परमात्माग्नौ स्वात्मनो होमस्य प्रेरणा ग्राह्या ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Self-abnegating devotees glorify with songs of praise, like a friend, God, Who is the Urger of the light of knowledge.

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    Meaning

    Adore and exalt Agni whom yajnic people serve as a friend, with havi in hand and oblations of clarified butter, and celebrate with songs of praise. (Rg. 8-74-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (हविष्यमन्तः जनासः) પવિત્ર આત્મરૂપ ભેટવાળા ઉપાસકજનો (सर्पिः आसुतिं मित्रं न) પ્રાપ્ત થનાર સાક્ષાત્ મિત્ર સમાન (यम्) જે પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્માને (प्रशस्तिभिः प्रशंसन्ति) પ્રશંસાઓથીસ્તુતિઓ દ્વારા પ્રશંસિત કરે છે, તે સિદ્ધ ઉપાસ્ય છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आध्यात्मिक जीवन जगण्यासाठी इच्छुक असणाऱ्या माणसांनी अग्निहोत्राद्वारे परमात्मग्नीमध्ये आपल्या आत्म्याच्या होमाची प्रेरणा ग्रहण करावी. ॥२॥

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