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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1567
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्य आङ्गिरसो वा
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
4
स꣡मि꣢द्धम꣣ग्निं꣢ स꣣मि꣡धा꣢ गि꣣रा꣡ गृ꣢णे꣣ शु꣡चिं꣢ पाव꣣कं꣢ पु꣣रो꣡ अ꣢ध्व꣣रे꣢ ध्रु꣣व꣢म् । वि꣢प्र꣣ꣳ हो꣡ता꣢रं पुरु꣣वा꣡र꣢म꣣द्रु꣡हं꣢ क꣣वि꣢ꣳ सु꣣म्नै꣡री꣢महे जा꣣त꣡वे꣢दसम् ॥१५६७॥
स्वर सहित पद पाठस꣡मि꣢꣯द्धम् । सम् । इ꣣द्धम् । अग्नि꣢म् । स꣣मि꣡धा꣢ । स꣣म् । इ꣡धा꣢꣯ । गि꣣रा꣢ । गृ꣣णे । शु꣣चि꣢꣯म् । पा꣣वक꣢म् । पु꣣रः꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ । ध्रु꣣व꣢म् । वि꣡प्र꣢꣯म् । वि । प्र꣣म् । हो꣡ता꣢꣯रम् । पु꣣रुवा꣡र꣢म् । पु꣣रु । वा꣡र꣢꣯म् । अ꣣द्रु꣡ह꣢म् । अ꣣ । द्रु꣡ह꣢꣯म् । क꣣वि꣢म् । सु꣣म्नैः꣢ । ई꣣महे । जात꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् ॥१५६७॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धमग्निं समिधा गिरा गृणे शुचिं पावकं पुरो अध्वरे ध्रुवम् । विप्रꣳ होतारं पुरुवारमद्रुहं कविꣳ सुम्नैरीमहे जातवेदसम् ॥१५६७॥
स्वर रहित पद पाठ
समिद्धम् । सम् । इद्धम् । अग्निम् । समिधा । सम् । इधा । गिरा । गृणे । शुचिम् । पावकम् । पुरः । अध्वरे । ध्रुवम् । विप्रम् । वि । प्रम् । होतारम् । पुरुवारम् । पुरु । वारम् । अद्रुहम् । अ । द्रुहम् । कविम् । सुम्नैः । ईमहे । जातवेदसम् । जात । वेदसम् ॥१५६७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1567
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - गृणे ईमहे [ स्तवन तथा धारण ]
पदार्थ -
प्रभु का स्तवन अज्ञान में नहीं हो पाता। 'ज्ञान, दर्शन, प्रवेश' यह क्रम है। हम प्रभु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उससे बनाये इस संसार के पदार्थों के तत्त्व को समझने का प्रयत्न करते हैंइन पदार्थों में प्रभु की रचना की विलक्षण महिमा का हमें आभास मिलता है। इस प्रकार ज्ञानवृद्धि के साथ हम प्रभु के ज्ञानीभक्त बनते चलते हैं । मन्त्र में कहते हैं कि (समिधा) = ज्ञान की दीप्ति के द्वारा (गिरा) = वेदवाणियों से (गृणे) = मैं उस प्रभु का स्तवन करता हूँ, जो
१. (समिद्धम्) = ज्ञान की ज्योति से [सम् इद्ध] सम्यक् दीप्त हैं, ज्ञानमय हैं – विशुद्धाचित् हैं।
२.(अग्निम्) = ज्ञानाग्नि में सब मलिनताओं को भस्म कर देनेवाले हैं, अतएव
३. (शुचिम्) = स्वयं तो पूर्ण पवित्र व उज्ज्वल हैं ही, वे
४. (पावकम्) = अपने भक्तों के जीवनों को भी पवित्र करनेवाले हैं ।
५.(अध्वरे पुरः) = वे प्रभु यज्ञों में सबसे आगे हैं [पुरोहितं यज्ञस्य ] । वे तो यज्ञरूप ही हैं।
६. ध्(रुवम्) = ध्रुव हैं–मर्यादाओं से डाँवाँडोल होनेवाले नहीं हैं। अपने बनाये हुए सृष्टिनियमों में कोई परिवर्तन करनेवाले नहीं है। केवल कृपा वा क्रोध के कारण कर्मफल में वे परिवर्तन नहीं करते ।
हम इस प्रभु को (सुम्नैः) = स्तोत्रों [Hymn] के द्वारा (ईमहे) = [ ई = to go ] प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं तथा इस प्रभु को हम [ ई = to desire] चाहते हैं तथा इस प्रभु की भावना से अपने को गर्भित [ई= f=to become pregnant with] कर लेते हैं । वे प्रभु
७. (विप्रम्) = [वि-प्रा] विशेषरूप से सारे ब्रह्माण्ड का पूरण किये हुए हैं। वे प्रभु अपने भक्तों के जीवन की न्यूनताओं को दूर करके उनका पूरण करते हैं ।
८. (होतारम्) = वे प्रभु जीवहित के लिए उसे सब पदार्थों को देनेवाले हैं। प्रभु ने तो जीवहित के लिए अपने को भी दे डाला है [य आत्मदा] ।
९. (पुरुवारम्) = पालन व पूरण के लिए वे प्रभु सब विघ्नों व अमङ्गलों का वारण – निवारण
१०. (अद्रुहम्) = वे प्रभु किसी की जिघांसा - मारने की इच्छा से रहित हैं। समय-समय पर प्रभु से प्राप्त करायी जानेवाली मृत्यु भी जीव को अमरता प्रापण के लिए ही होती है [यस्य मृत्युः अमृतम्]।
११. (कविम्) = वे प्रभु कवि-क्रान्तदर्शी हैं- प्रत्येक वस्तु के तत्त्व को जाननेवाले हैं और सृष्टि के प्रारम्भ में ही वेदज्ञान द्वारा सब विद्याओं का उपदेश देनेवाले हैं [कौति सर्वा विद्याः]। १२. जातवेदसम्=वे प्रभु प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान हैं [जाते-जाते विद्यते], वे सब पदार्थों व हमारे कर्मों को जानते हैं [जातं जातं वेत्ति], सम्पूर्ण ऐश्वर्य उन्हीं से प्राप्त होता है [जातं वेदो यस्मात्] ।
इस प्रकार इन बारह गुणों से युक्त प्रभु का स्तवन करनेवाला स्तोता इन गुणों को अपने अन्दर धारण करने का प्रयत्न करता है और १. भरद्वाज- अपने में शक्ति को भरनेवाला बनता है २. वीतहव्य=सदा पवित्र पदार्थों का सेवन करनेवाला होता है तथा ३. बार्हस्पत्य:- ज्ञानियों का मूर्धन्य बनता है । यही इस मन्त्र का ऋषि है ।
भावार्थ -
ज्ञान प्राप्ति के द्वारा हम प्रभु के सच्चे स्तोता बनें [गृणे] । स्तोत्रों के द्वारा हम अपने हृदयों को प्रभु की भावना से ओत-प्रोत कर लें [ईमहे] ।
टिप्पणी -
नोट – यहाँ प्रथम विशेषण ‘समिद्धम्' है- ज्ञान से दीप्त, तथा अन्तिम विशेषण है 'जातवेदसम्', सर्वज्ञ । एवं, प्रारम्भ भी ज्ञान से है, समाप्ति भी ज्ञान पर । यह शैली ज्ञान के महत्त्व को सुव्यक्त कर रही है।