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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1571
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः पावकोऽग्निर्बार्हस्पत्यो वा गृहपति0यविष्ठौ सहसः पुत्रावन्यतरो वा देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
1

य꣡स्य꣢ त्रि꣣धा꣡त्ववृ꣢꣯तं ब꣣र्हि꣢स्त꣣स्था꣡वस꣢꣯न्दिनम् । आ꣡प꣢श्चि꣣न्नि꣡ द꣢धा प꣣द꣢म् ॥१५७१॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣡स्य꣢꣯ । त्रि꣣धा꣡तु꣢ । त्रि꣣ । धा꣡तु꣢꣯ । अ꣡वृ꣢꣯तम् । अ । वृ꣣तम् । बर्हिः꣢ । त꣣स्थौ꣢ । अ꣡स꣢꣯न्दिनम् । अ । स꣣न्दिनम् । आ꣡पः꣢꣯ । चि꣣त् । नि꣢ । द꣣ध । पद꣢म् ॥१५७१॥


स्वर रहित मन्त्र

यस्य त्रिधात्ववृतं बर्हिस्तस्थावसन्दिनम् । आपश्चिन्नि दधा पदम् ॥१५७१॥


स्वर रहित पद पाठ

यस्य । त्रिधातु । त्रि । धातु । अवृतम् । अ । वृतम् । बर्हिः । तस्थौ । असन्दिनम् । अ । सन्दिनम् । आपः । चित् । नि । दध । पदम् ॥१५७१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1571
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

गत मन्त्र में कहा था कि हविष्कृत को वायु के समान बल की प्राप्ति होती है । उसी हविष्कृत् के लिए कहते हैं कि यह वह है १. (यस्य) = जिसका (त्रिधातु) = प्रकृति, जीव व परमात्मा के ज्ञान को धारण करनेवाला मस्तिष्करूप द्युलोक (अवृतम्) = वासनाओं के मेघों से आवृत्त नहीं होता । इसकी ज्ञानाग्नि को वासना का धुँआ ढक नहीं लेता। कामरूप वृत्र से इसका ज्ञान आवृत्त नहीं हो जाता २. (बर्हिः) = इसका हृदयान्तरिक्ष (असन्दिनम्) = [असन्दितम्]=वासनाओं से अबद्ध (तस्थौ) = रहता है । इसके जीवन में परम प्रभु का स्मरण विषयरस को समाप्त कर देता है । ३. इसके शरीर में (आपः) = शक्तिरूप में रहनेवाले जल [आपः रेतो भूत्वा०–ऐ०] (पदम्) = पग को (चित्) = निश्चय से निदधा रखते हैं, अर्थात् इसके शरीर में शक्ति सुरक्षित रहती है ।

इस प्रकार यह मस्तिष्क में उत्कृष्ट ज्ञान के योगवाला होता है, हृदय में पवित्रता के योग को प्राप्त करता है और शरीर में शक्ति के योगवाला होकर सचमुच 'प्रयोग' प्रकृष्ट योगवाला होता है।

भावार्थ -

हमारा जीवन उत्कृष्ट ज्ञान, पवित्रता व शक्ति से युक्त हो ।

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