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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1582
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
त्वं꣢ पु꣣रू꣢ स꣣ह꣡स्रा꣢णि श꣣ता꣡नि꣢ च यू꣣था꣢ दा꣣ना꣡य꣢ मꣳहसे । आ꣡ पु꣢रन्द꣣रं꣡ च꣢कृम꣣ वि꣡प्र꣢वचस꣣ इ꣢न्द्रं꣣ गा꣢य꣣न्तो꣡ऽव꣢से ॥१५८२॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । पु꣣रु꣢ । स꣣ह꣡स्रा꣢णि । श꣣ता꣡नि꣢ । च꣣ । यूथा꣢ । दा꣣ना꣡य꣢ । म꣣ꣳहसे । आ꣢ । पु꣣रन्दर꣢म् । पु꣣रम् । दर꣢म् । च꣣कृम । वि꣡प्र꣢꣯वचसः । वि꣡प्र꣢꣯ । व꣣चसः । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गा꣡य꣢꣯न्तः । अ꣡व꣢꣯से ॥१५८२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं पुरू सहस्राणि शतानि च यूथा दानाय मꣳहसे । आ पुरन्दरं चकृम विप्रवचस इन्द्रं गायन्तोऽवसे ॥१५८२॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । पुरु । सहस्राणि । शतानि । च । यूथा । दानाय । मꣳहसे । आ । पुरन्दरम् । पुरम् । दरम् । चकृम । विप्रवचसः । विप्र । वचसः । इन्द्रम् । गायन्तः । अवसे ॥१५८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1582
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - पुरन्दर का गान
पदार्थ -
हे प्रभो (त्वम्) = आप (पुरू सहस्राणि) = बहुत, हज़ारों व (शतानि च) = सैकड़ों (यूथा) = गौवों व अश्वों के समूहों को (दानाय) = दान के लिए मंहसे देते हैं । हम (विप्रवचसः) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले वचनोंवाले बनकर (गायन्तः) = गायन करते हुए (अवसे) = अपनी रक्षा के लिए (पुरन्दरम्) = असुरों की तीनों पुरियों का विदारण करके इन्द्रियों, मन व बुद्धि को शुद्ध करनेवाले (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (आ) = अपने सब ओर (चकृम) = करते हैं, प्रभु से सर्वतः व्याप्त होकर हम असुरों से आक्रान्त हो ही कैसे सकते हैं ?
यह मन्त्र भर्ग ऋषि के लिए निम्न बोध दे रहा है -
१. हम प्रभु से प्राप्त गौवों व अश्वों का दान करनेवाले हों ।
२. हमारे वचन सदा उत्तम प्रेरणा देते हुए हमारा पूरण करनेवाले हों।
३. हम सदा प्रभु के गायन द्वारा अपनी रक्षा करें ।
४. वे प्रभु पुरन्दर हैं कामादि आसुर वृत्तियाँ इन्द्रियों, मन व बुद्धि में अपना अधिष्ठान बना लेती हैं और इस प्रकार वे तीन आसुर पुरियाँ बन जाती हैं। हम प्रभु की स्तुति करते हैं तो ये तीनों आसुर पुरियाँ नष्ट हो जाती हैं और हमारी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि फिर से पवित्र हो जाते हैं ।
५. हम सदा अपने चारों ओर प्रभु को अनुभव करें । उस अमृत से व्याप्त होकर हम मृत्यु का शिकार न होंगे ।
भावार्थ -
प्रभु-तेज से तेजस्वी बनकर हम सचमुच प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि भर्ग बनें ।
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