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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 159
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣यं꣡ त꣢ इन्द्र꣣ सो꣢मो꣣ नि꣡पू꣢तो꣣ अ꣡धि꣢ ब꣣र्हि꣡षि꣢ । ए꣡ही꣢म꣣स्य꣢꣫ द्रवा꣣ पि꣡ब꣢ ॥१५९॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣य꣢म् । ते꣣ । इन्द्र । सो꣡मः꣢꣯ । नि꣡पू꣢꣯तः । नि । पू꣣तः । अ꣡धि꣢꣯ । ब꣣र्हि꣡षि꣢ । आ । इ꣣हि । ईम् । अस्य꣢ । द्र꣡व꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ ॥१५९॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं त इन्द्र सोमो निपूतो अधि बर्हिषि । एहीमस्य द्रवा पिब ॥१५९॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । ते । इन्द्र । सोमः । निपूतः । नि । पूतः । अधि । बर्हिषि । आ । इहि । ईम् । अस्य । द्रव । पिब ॥१५९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 159
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5;
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विषय - उन्नत होता हुआ भी विनीत
पदार्थ -
इस मन्त्र का ऋषि ‘इरिम्बिठि काण्व' है। क्रतुमय है हृदय जिसका, कर्म-संकल्प भरे हुए हृदयवाला यह इरिम्बिठि काण्व - कण्वपुत्र अत्यन्त मेधावी तो है ही । कर्म-संकल्प से रहित व्यक्ति कभी उन्नति के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता। यह क्रियाशीलता ही इस इरिम्बिठि की उन्नति का कारण बनती है। (क्रमशः) = उन्नति-पथ पर बढ़ता हुआ यह समय आने पर उन्नति-शिखर पर आरूढ़ होता है। इस उन्नति - शिखर पर पहुँचकर भी यदि यह सोम-विनीत बना रहता है तो यह कह सकता है कि हे इन्द्र = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (अयं सोम:)=उन्नति होने पर भी विनीत बना हुआ यह मैं (ते) = तेरा ही हूँ। वस्तुतः जो व्यक्ति उन्नत होने पर गर्ववाला हो जाता है, वह अपने को ईश्वर [ईश्वरोऽहम् ] मानने लगता है, वह ईश्वर का भक्त नहीं रहता। यह गर्व ही अन्त में उसके पतन का कारण बनता है।
यह इरिम्बिठि प्रभु से कहता है कि (निपूत:) = मैंने अपने को नितरां पवित्र किया है, वस्त्रों व बाह्य शरीर के दृष्टिकोण से नहीं, अपितु (अधिबर्हिषि) = हृदय के दृष्टिकोण से। मैंने अपने हृदय से काम, क्रोध, लोभ आदि वासनाओं को दूर किया है और इस प्रकार अपने हृदय को निर्मल बनाया है, क्योंकि इसमें से वासनारूपी घास को उखाड़ दिया है, अतः यह सचमुच ‘बर्हिः' कहलाने योग्य हुआ है। इस प्रकार पवित्र बनकर मैं सचमुच आपका ही हो गया हूँ। (एहि) = आइए (ईम्) = निश्चय से आइए । (अस्य) = इस आपके भक्त के प्रति (द्रव) = अनुकम्पित हृदयवाले होओ और पिब इसकी रक्षा कीजिए । (पिब) = का सामान्य अर्थ पीना ही होता है,
परन्तु यहाँ ‘रक्षा करना' अर्थ अधिक सङ्गत है।
भावार्थ -
हम विनीत व पवित्रहृदय बनें, जिससे प्रभु - रक्षा के पात्र हों।
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