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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 160
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
6
सु꣣रूपकृत्नु꣢मू꣣त꣡ये꣢ सु꣣दु꣡घा꣢मिव गो꣣दु꣡हे꣢ । जु꣣हूम꣢सि꣣ द्य꣡वि꣢द्यवि ॥१६०॥
स्वर सहित पद पाठसु꣣रूपकृत्नुम् । सु꣣रूप । कृत्नु꣢म् । ऊ꣣त꣡ये꣢ । सु꣣दु꣡घा꣢म् । सु꣣ । दु꣡घा꣢꣯म् । इ꣣व गोदु꣡हे꣢ । गो꣣ । दु꣡हे꣢꣯ । जु꣣हूम꣡सि꣣ । द्य꣡वि꣢꣯द्यवि । द्य꣡वि꣢꣯ । द्य꣣वि ॥१६०॥
स्वर रहित मन्त्र
सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे । जुहूमसि द्यविद्यवि ॥१६०॥
स्वर रहित पद पाठ
सुरूपकृत्नुम् । सुरूप । कृत्नुम् । ऊतये । सुदुघाम् । सु । दुघाम् । इव गोदुहे । गो । दुहे । जुहूमसि । द्यविद्यवि । द्यवि । द्यवि ॥१६०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 160
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5;
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विषय - मैं उस ग्वाले की उत्तम गौ बनूँ
पदार्थ -
पवित्र मधुर इच्छाओंवाला ('मधुच्छन्दा:) = सभी के प्रति अत्यन्त स्नेह की भावनावाला (‘वैश्वामित्रः') = इस मन्त्र का ऋषि है। यह कहता है कि हे प्रभो! (ऊतये) = अपनी रक्षा के लिए (द्यविद्यवि) = प्रतिदिन (जुहूमसि) = हम आपको पुकारते हैं। आप (सुरूपकृत्लुम्) = उत्तम रूपों के निर्माता हैं। आपके स्मरण व आराधना से शरीर नीरोग, मन विशाल और बुद्धि तीव्र होती है । शरीर, मन व बुद्धि तीनों ही सुरूप हो जाते हैं। इन सुरूप अङ्ग-प्रत्यङ्गों को प्राप्त करके हम (गोदुहे) = ग्वाले के रूपवाले आपके लिए (सुदुघाम् इव) = उत्तम दूही जानेवाली गौ के समान हो जाते हैं।
हम अपने मानव जीवन की रक्षा इसी प्रकार कर सकते हैं कि शरीर, मन व बुद्धि को सुन्दर बनाएँ, परन्तु इन्हें सुन्दर बनाना प्रभु - कृपा से ही सम्भव है। इन्हें सुन्दर बनाकर मनुष्य सुदुघा गौ के समान बन जाता है, जिस गौ का ग्वाला प्रभु ही होता है । वेद में ‘गौ’ मानव जीवन के साथ जोड़ - सी दी गई है। वह हमारी माता बन गई है। हमारी शारीरिक नीरोगता, मानस विशालता व बुद्धि- सूक्ष्मता का निर्माण करनेवाली यह गौ ही है। इस गौ के दुग्ध से प्रभु ने हमारे शरीर, मन व बुद्धि को सुन्दर बनाने की व्यवस्था की है। ‘करनेवाले प्रभु ही हैं, मैं कौन ?' इस भावना को जाग्रत् करनेवाला ही सुदुघा गौ के समान बना रहता है।
भावार्थ -
प्रभु गोपाल हैं, हम उनकी उत्तम गौएँ बनें ।
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