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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 162
ऋषिः - कुसीदी काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣡ इ꣢न्द्र चम꣣से꣡ष्वा सोम꣢꣯श्च꣣मू꣡षु꣢ ते सु꣣तः꣢ । पि꣡बेद꣢꣯स्य꣣ त्व꣡मी꣢शिषे ॥१६२॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । इ꣢न्द्र । चमसे꣡षु꣢ । आ । सो꣡मः꣢꣯ । च꣣मू꣡षु꣢ । ते꣣ । सुतः꣢ । पि꣡ब꣢꣯ । इत् । अ꣣स्य । त्व꣢म् । ई꣣शिषे ॥१६२॥
स्वर रहित मन्त्र
य इन्द्र चमसेष्वा सोमश्चमूषु ते सुतः । पिबेदस्य त्वमीशिषे ॥१६२॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । इन्द्र । चमसेषु । आ । सोमः । चमूषु । ते । सुतः । पिब । इत् । अस्य । त्वम् । ईशिषे ॥१६२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 162
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5;
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विषय - तू ईश ही बन जाएगा
पदार्थ -
इस मन्त्र का ऋषि 'कुसीदी काण्व' है। 'कुस संश्लेषणे' धातु से यह शब्द बना है। जो प्रभु से संश्लिष्ट होना चाहता है, प्रभु से मिलने की प्रबल इच्छा रखता है, वह कुसीदी है। । प्रभु की ओर जाने के मार्ग को अपनाना ही बुद्धिमत्ता है, अतः यह काण्व - मेधावी तो है ही। इस मार्ग पर चलने से ही वास्तविक शान्ति उपलभ्य है। इन्द्रियों को वश में रखनेवाला 'इन्द्र' ही इस मार्ग पर चल सकता है। इस इन्द्र से प्रभु कहते हैं कि - हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के वशकर्ता! (यः सोमः) = जो यह सोम [वीर्यशक्ति] (सुतः) = उत्पन्न किया गया है वह (ते) = तेरे (चमसेषु) = चमसों के निमित्त तथा (चमूषु) = चमुओं के निमित्त ही उत्पन्न किया गया है।
(‘चमस') = शब्द का अभिप्राय ('तिर्यद्भग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम्। तदासत ऋषयः सप्त साकम्।') = इस मन्त्र में स्पष्ट कर दिया गया है। यहाँ चमस का अभिप्राय मस्तिष्क से है और इसके तीर पर स्थित सात ऋषि ('कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्') = ये इन्द्रियाँ ही हैं। इन इन्द्रियों के बहुत्व के दृष्टिकोण से ही ‘चमसेषु' शब्द में बहुवचन का प्रयोग है। इन ज्ञानेन्द्रियों के निमित्त वीर्यशक्ति का उत्पादन हुआ है। इन्हें सबल बनाने के लिए ही इस वीर्यशक्ति का विनियोग होना चाहिए। इसी प्रकार यह शक्ति चमुओं के निमित्त उत्पन्न की गई है। 'चमू' शब्द का अर्थ यास्क ‘द्यावापृथिव्यौ' द्युलोक और पृथिवीलोक करते हैं। अध्यात्म में इनका अभिप्राय मस्तिष्क व स्थूल शरीर है। वीर्यशक्ति दोनों को सबल बनानेवाली है।
एवं, यह स्पष्ट है कि यह सोम शरीर को नीरोग, इन्द्रियों को शक्तिशाली व मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाने के लिए प्रभु से उत्पन्न किया गया है। यदि हम इसका ठीक उपयोग करेंगे तो हम अपने शरीर, इन्द्रियों व मस्तिष्क तीनों को ही ऐश्वर्यसम्पन्न बना पाएँगे। प्रभु कहते हैं कि तू (अस्य पिब इत्) = इस सोम का ही पान कर। इसे अपने शरीर में ही सुरक्षित करने के लिए प्रयत्नशील हो । यदि हम इस सोम का पान करेंगे तो प्रभु कहते हैं कि (त्वम् ईशिषे) = तू भी ईश हो जाएगा। तेरा भी सामर्थ्य ईश्वर - तुल्य हो जाएगा। वेदान्त के शब्दों में जगत् को बनाने के व्यापार को छोड़कर इसका ऐश्वर्य भी प्रभु - जैसा हो जाता है। तो क्या इतना ऊँचा उठा देनेवाली शक्ति का अपव्यय कहीं न्याय्य हो सकता है ?
भावार्थ -
प्रभुकृपा से सोम का रक्षण करते हुए हम स्वस्थ, निर्मल व दीप्त जीवनवाले बनें।
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