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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1627
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - विष्णुः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
1
व꣡ष꣢ट् ते विष्णवा꣣स꣡ आ कृ꣢꣯णोमि꣣ त꣡न्मे꣢ जुषस्व शिपिविष्ट ह꣣व्य꣢म् । व꣡र्ध꣢न्तु त्वा सु꣣ष्टु꣢त꣣यो गि꣡रो꣢ मे यू꣣यं꣡ पा꣢त स्व꣣स्ति꣢भिः꣣ स꣡दा꣢ नः ॥१६२७॥
स्वर सहित पद पाठव꣡ष꣢꣯ट् । ते꣣ । विष्णो । आसः꣢ । आ । कृ꣣णोमि । त꣢त् । मे꣣ । जुषस्व । शिपिविष्ट । शिपि । विष्ट । हव्य꣢म् । व꣡र्ध꣢꣯न्तु । त्वा꣣ । सुष्टुत꣡यः꣢ । सु꣣ । स्तुत꣡यः꣢ । गि꣡रः꣢꣯ । मे꣣ । यूय꣢म् । पा꣣त । स्व꣣स्ति꣡भिः꣢ । सु । अस्ति꣡भिः꣢ । स꣡दा꣢꣯ । नः꣣ ॥१६२७॥
स्वर रहित मन्त्र
वषट् ते विष्णवास आ कृणोमि तन्मे जुषस्व शिपिविष्ट हव्यम् । वर्धन्तु त्वा सुष्टुतयो गिरो मे यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥१६२७॥
स्वर रहित पद पाठ
वषट् । ते । विष्णो । आसः । आ । कृणोमि । तत् । मे । जुषस्व । शिपिविष्ट । शिपि । विष्ट । हव्यम् । वर्धन्तु । त्वा । सुष्टुतयः । सु । स्तुतयः । गिरः । मे । यूयम् । पात । स्वस्तिभिः । सु । अस्तिभिः । सदा । नः ॥१६२७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1627
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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विषय - 'यज्ञ' की उपासना 'यज्ञ के द्वारा '
पदार्थ -
(सः) = वह मैं हे (विष्णो) = व्यापक प्रभो ! (ते वषट्) = तेरे स्वाहारूप यज्ञ को (आ) = सर्वथा (आकृणोमि) = कुछ-न-कुछ करता ही हूँ [आ= ईषत्] । प्रभु तो सर्वव्यापक हैं और इसी नाते वे सबका कल्याण कर रहे हैं—उनका यह लोकहित के लिए अपने को दे डालनारूप यज्ञ सब जगह पूर्णरूप से चल है । प्रभु का स्तवन करनेवाला यह वसिष्ठ अपनी अल्पता के कारण उस यज्ञ को उतने विस्तार से नहीं कर सकता, अतः कहता है कि फिर भी मैं कुछ-न-कुछ यज्ञ तो करता ही हूँ | (मे) = मेरे (तत्) = रहा (हव्यम्) = उस यज्ञ को आप (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन कीजिए । हे (शिपिविष्ट) = प्रकाश किरणों में प्रविष्ट, अतएव सदा दीप्त प्रभो ! (हव्यम्) = मेरी इस पुकार को आप अवश्य सुनिए, अर्थात् आपकी कृपा से मैं यज्ञ-यात्रा से कभी विचलित न होऊँ, कुछ-न-कुछ यज्ञ करूँ ही ।
(मे) = मेरी (सुष्टुतयः) = उत्तम स्तुतियोंवाली वाणियाँ (त्वा) = आपको (वर्धन्तु) = बढ़ाएँ। आपकी स्तुति के द्वारा मेरी वाणी सदा आपके गुण-कीर्तन करनेवाली बने और मेरा जीवन इन गुणों को लेकर, ऐसा बने कि हे देवो! (यूयम्) = आप सब (स्वस्तिभिः) = उत्तम स्थितियों से सदा हमेशा (नः) = हमें -पात = सुरक्षित करें ।
भावार्थ -
उस पूर्ण यज्ञरूप प्रभु की उपासना के लिए हम भी कुछ-न-कुछ यज्ञ करें । प्रभु का गुणगान करें- और अपने को इस योग्य बनाएँ कि सब देव हमारा त्राण करें ।
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