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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1639
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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य꣣ज्ञ꣡ इन्द्र꣢꣯मवर्धय꣣द्य꣢꣯द्भूमिं꣣ व्य꣡व꣢र्तयत् । च꣣क्राण꣡ ओ꣢प꣣शं꣢ दि꣣वि꣢ ॥१६३९॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣣ज्ञः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣वर्धयत् । य꣢त् । भू꣡मि꣢꣯म् । व्य꣡व꣢꣯र्तयत् । वि । अ꣡व꣢꣯र्तयत् । च꣣क्राणः꣢ । ओ꣣पश꣢म् । ओ꣣प । श꣢म् । दि꣣वि꣢ ॥१६३९॥


स्वर रहित मन्त्र

यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिं व्यवर्तयत् । चक्राण ओपशं दिवि ॥१६३९॥


स्वर रहित पद पाठ

यज्ञः । इन्द्रम् । अवर्धयत् । यत् । भूमिम् । व्यवर्तयत् । वि । अवर्तयत् । चक्राणः । ओपशम् । ओप । शम् । दिवि ॥१६३९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1639
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र की व्याख्या संख्या १२१ पर इस प्रकार है (यज्ञः) = यज्ञ की भावना ने (इन्द्रम्) = आत्मा को (अवर्धयत्) = बढ़ाया है । (यत्) = इसीलिए तो (भूमिं व्यवर्तयत्) = इन्द्र ने यज्ञ के लिए सारी पार्थिव सम्पत्ति – सारी थैली को ही उलटा दिया है । इस यज्ञिय भावना के परिणामरूप यह इन्द्र (दिवि) = मस्तिष्क में (ओपशम्) = मस्तक के ज्ञानरूप आभरण को (चक्राणः) = बनानेवाला हुआ है । 

भावार्थ -

यज्ञ से सब प्रकार का वर्धन होता है और मस्तिष्क ज्ञान से अलंकृत होता है |
 

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