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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1650
ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
मा꣡ नो꣢ अग्ने महाध꣣ने꣡ परा꣢꣯ वर्ग्भार꣣भृ꣡द्य꣢था । सं꣣व꣢र्ग꣣ꣳ स꣢ꣳ र꣣यिं꣡ ज꣢य ॥१६५०॥
स्वर सहित पद पाठमा꣢ । नः꣣ । अग्ने । महाधने꣢ । म꣣हा । धने꣢ । प꣡रा꣢꣯ । व꣣र्क् । भारभृ꣢त् । भा꣣र । भृ꣢त् । य꣣था । संव꣡र्ग꣢म् । स꣣म् । व꣡र्ग꣢꣯म् । सम् । र꣣यि꣢म् । ज꣢य ॥१६५०॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो अग्ने महाधने परा वर्ग्भारभृद्यथा । संवर्गꣳ सꣳ रयिं जय ॥१६५०॥
स्वर रहित पद पाठ
मा । नः । अग्ने । महाधने । महा । धने । परा । वर्क् । भारभृत् । भार । भृत् । यथा । संवर्गम् । सम् । वर्गम् । सम् । रयिम् । जय ॥१६५०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1650
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - कुली ही न बन जाएँ
पदार्थ -
हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (नः) = हमें इस दिये हुए (महाधने) = महाधन – विशालधन राशि के लिए (यथा भारभृत्) = एक कुली की भाँति बोझा ढोनेवाले के समान (मा परावर्क्) = मत छोड़ दीजिए । हम धन का बोझा ढोनेवाले ही न बने रहें । हम अपने जीवनकाल में कृपणता को छोड़कर उदारता से ज्ञानान्वेषण [research] के कार्यों में धन का विनियोग करते हुए अपने बोझ को सदा हलका करते रहें । अन्यथा बोझ के नीचे दबकर हमारी शकल [मुखाकृति] ही विकृत हो जाएगी । हम 'विहीनरूप' वाले ‘विरूप’ बन जाएँगे। हमारी तो इच्छा है कि हम 'विशिष्टरूप' वाले विरूप, अर्थात् तेजस्वी बनें। = उल्लिखित कामनावाले विरूप से प्रभु कहते हैं कि तू (वर्गम्) = वर्जनीय शत्रुवर्ग को (संजय) = अच्छी प्रकार जीत । काम-क्रोधादि पर विजय पाने का यत्न कर और रयिं संजय - इस धन पर भी तू विजय प्राप्त करनेवाला बन । जब धन तुझे जीत लेता है तभी तो तू इसका ‘भारभृत्' बन जाता है । यह तुझपर सवार हो जाता है। जब लोभ को जीतकर तू धन का स्वामी बनेगा तब तू अवश्य ज्ञानान्वेषण में इसका विनियोग करेगा, वस्तुतः उसी दिन तू तेजस्वी वा 'विरूप’ बनेगा।
भावार्थ -
हम धनों का बोझ ही न ढोते रह जाएँ, हम धन का विनियोग ज्ञानान्वेषण में करें ।
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