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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1651
ऋषिः - वत्सः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
स꣡म꣢स्य म꣣न्य꣢वे꣣ वि꣢शो꣣ वि꣡श्वा꣢ नमन्त कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । स꣣मुद्रा꣡ये꣢व꣣ सि꣡न्ध꣢वः ॥१६५१॥
स्वर सहित पद पाठस꣢म् । अ꣣स्य । मन्य꣡वे꣢ । वि꣡शः꣢꣯ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । न꣣मन्त । कृष्ट꣡यः꣢ । स꣣मुद्रा꣡य꣢ । स꣣म् । उद्रा꣡य꣢ । इ꣣व । सि꣡न्ध꣢꣯वः ॥१६५१॥
स्वर रहित मन्त्र
समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः । समुद्रायेव सिन्धवः ॥१६५१॥
स्वर रहित पद पाठ
सम् । अस्य । मन्यवे । विशः । विश्वाः । नमन्त । कृष्टयः । समुद्राय । सम् । उद्राय । इव । सिन्धवः ॥१६५१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1651
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - हम प्रभु के ‘वत्स'=प्रिय बनें
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र की व्याख्या संख्या १३७ पर इस रूप में है—
(इव) = जैसे (सिन्धवः) = बहनेवाली नदियाँ (समुद्राय) = समुद्र के लिए [संनमन्ति] = झुकती हैं, उसी प्रकार (विश्वाः) = इस संसार के अन्दर प्रविष्ट हुए हुए और अब प्रभु की गोद में प्रवेश की इच्छावाले (कृष्टयः) = हृदयस्थली से वासनारूप घासफूस को उखाड़ देने की कामनावाले (विश:) = प्रजाजन (अस्य) = इस प्रभु के (मन्यवे) = ज्ञान के लिए (संनमन्त) = झुकते हैं, अर्थात् प्रभु से दिये गये वेदज्ञान के लिए प्रयत्नशील होते हैं ।
भावार्थ -
ज्ञान प्राप्त करना हमारे लिए स्वाभाविक हो जाए तभी हम प्रभु के प्रिय बन पाएँगे ।
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