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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1652
ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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वि꣡ चि꣢द्वृ꣣त्र꣢स्य꣣ दो꣡ध꣢तः꣣ शि꣡रो꣢ बिभेद वृ꣣ष्णि꣡ना꣢ । व꣡ज्रे꣢ण श꣣त꣡प꣢र्वणा ॥१६५२॥

स्वर सहित पद पाठ

वि꣢ । चि꣣त् । वृत्र꣡स्य꣢ । दो꣡ध꣢꣯तः । शि꣡रः꣢꣯ । बि꣣भेद । वृष्णि꣡ना꣢ । व꣡ज्रे꣢꣯ण । श꣣त꣡प꣢र्वणा । श꣣त꣢ । प꣣र्वणा ॥१६५२॥


स्वर रहित मन्त्र

वि चिद्वृत्रस्य दोधतः शिरो बिभेद वृष्णिना । वज्रेण शतपर्वणा ॥१६५२॥


स्वर रहित पद पाठ

वि । चित् । वृत्रस्य । दोधतः । शिरः । बिभेद । वृष्णिना । वज्रेण । शतपर्वणा । शत । पर्वणा ॥१६५२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1652
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

गत मन्त्र के अनुसार वत्स ऋषि ज्ञान की ओर प्रवृत्तिवाला होकर प्रभु का प्रिय तो बनता ही है यह ज्ञानी बनकर आजीवन क्रियाशील बना रहता है । यह सौ-के-सौ वर्ष क्रियाशील बने रहना ही इसका ‘शतपर्व वज्र' है, जो इसके जीवन को अत्यन्त सुखी बनाता है, यह ‘वृष्णि' है— सुख का सेचक है ।

इस (शतपर्वणा वृष्णिना वज्रेण) = शतपर्ववाले, जीवन को सुखी बनानेवाले वज्र से – क्रियामय जीवन से यह वत्स (दोधतः वृत्रस्य) - क्रुद्ध होते हुए वृत्र के, अर्थात् उग्ररूप धारण करते हुए काम के (शिरः) = सिर को (विचित्) = विशेषरूप से (बिभेद) = विदीर्ण कर देता है । क्रियामय जीवन का परिणाम वासना का विनाश है। आलसी को ही वासना सताती है, पुरुषार्थी को नहीं । ('कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः') = कर्म करते हुए ही १०० वर्ष जीने की कामना करनी चाहिए ।

भावार्थ -

हम ज्ञान प्राप्त करें और कर्मशील बनकर अपने को वासनाओं के आक्रमण से बचाएँ।

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