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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1655
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
स꣡रू꣢प वृष꣣न्ना꣡ ग꣢ही꣣मौ꣢ भ꣣द्रौ꣡ धुर्या꣢꣯व꣣भि꣢ । ता꣢वि꣣मा꣡ उप꣢꣯ सर्पतः ॥१६५५
स्वर सहित पद पाठस꣡रू꣢꣯प । स । रू꣢प । वृषन् । आ꣢ । ग꣣हि । इ꣢मौ । भ꣣द्रौ꣢ । धु꣡र्यौ꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । तौ । इ꣣मौ꣢ । उ꣡प꣢꣯ । स꣣र्पतः ॥१६५५॥
स्वर रहित मन्त्र
सरूप वृषन्ना गहीमौ भद्रौ धुर्यावभि । ताविमा उप सर्पतः ॥१६५५
स्वर रहित पद पाठ
सरूप । स । रूप । वृषन् । आ । गहि । इमौ । भद्रौ । धुर्यौ । अभि । तौ । इमौ । उप । सर्पतः ॥१६५५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1655
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - ये दोनों समीप आते हैं
पदार्थ -
मन्त्र संख्या १६५१ में 'ज्ञान' का उल्लेख था, १६५२ में 'कर्म का' और फिर १६५३ में दोनों का समन्वय था। इन दोनों का ही प्रतिपादन १६५४ में वर्णित वेदवाणी में हुआ है । प्रभु जीव से कहते हैं कि
(सरूप) = मेरे समान रूपवाले (वृषन्) = शक्तिशाली जीव ! तू (इमौ) = इन ज्ञान और कर्म दोनों को (अभि आगहि) = आभिमुख्येन प्राप्त हो । दोनों की ओर तेरा झुकाव हो और दोनों को तू अपनानेवाला बन। ये दोनों मिले हुए ही (भद्रौ) = कल्याण व सुख को प्राप्त करानेवाले हैं, (धुर्यौ) = ये तेरे जीवन को लक्ष्य स्थान पर पहुँचाने में धुरन्धर हैं। इन दोनों से ही तू अपने लक्ष्य-स्थान पर पहुँचेगा। (तौ इमौ) = ये दोनों (उपसर्पत:) = तुझे मेरे समीप ले-आते हैं। केवल ज्ञान एक पहिया है - इसी प्रकार केवल कर्म। दोनों पहिये अक्ष से मिले हुए होंगे तभी तेरे जीवन की गाड़ी लक्ष्य-स्थान पर पहुँच पाएगी । जीवरूपी पक्षी के दो पंख हैं। जीव दोनों पंखों से ही उड़ने में समर्थ बनेगा ।
भावार्थ -
हम पक्षी [सुपर्ण] हैं— ज्ञान और कर्म ही हमारे दो पर्ण- उत्तम पंख हैं। इनके द्वारा हम उड़कर प्रभु के समीप पहुँचेंगे।
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