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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1656
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
4

नी꣢꣯व शी꣣र्षा꣡णि꣢ मृढ्वं꣣ म꣢ध्य꣣ आ꣡प꣢स्य तिष्ठति । शृ꣡ङ्गे꣢भिर्द꣣श꣡भि꣢र्दि꣣श꣢न् ॥१६५६

स्वर सहित पद पाठ

नि꣢ । इ꣣व । शीर्षा꣡णि꣢ । मृ꣣ढ्वम् । म꣡ध्ये꣢꣯ । आ꣡प꣢꣯स्य । ति꣣ष्ठति । शृ꣡ङ्गे꣢꣯भिः । द꣣श꣡भिः꣢ । दि꣣श꣢न् ॥१६५६॥


स्वर रहित मन्त्र

नीव शीर्षाणि मृढ्वं मध्य आपस्य तिष्ठति । शृङ्गेभिर्दशभिर्दिशन् ॥१६५६


स्वर रहित पद पाठ

नि । इव । शीर्षाणि । मृढ्वम् । मध्ये । आपस्य । तिष्ठति । शृङ्गेभिः । दशभिः । दिशन् ॥१६५६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1656
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

जीवों को प्रभु उपदेश करते हैं कि (शीर्षाणि) = शीर्षस्थ इन्द्रियों को [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्]=कानों, नासिका, आँखों व मुख को (नि मृवम् इव) = पूर्णरूप से शुद्ध-सा कर डालो । इनमें किसी प्रकार का मल न रह जाए। अरे जीव तो (आपस्य मध्ये) = [आपो वै मेध्याः, आपः पुष्करम्] पवित्र हृदयान्तरिक्ष में (तिष्ठति) = निवास करता है । उस हृदयान्तरिक्ष को वासनाओं के बवण्डरों से मलिन मत होने दो ।

हृदय में स्थित हुआ हुआ यह जीव (दशभिः शृंगेभि:) = दस ऊँचाइयों के द्वारा, अर्थात् पाँचों ज्ञानेन्द्रियों तथा पाँचों कर्मेन्द्रियों को अत्यन्त उन्नत करके दिशन्- उस प्रभु की ओर संकेत कर रहा है। एक-एक इन्द्रिय को उच्चता के शिखर पर ले जाकर ही तो यह प्रभु को प्राप्त कर पाता है । यदि यह किसी एक इन्द्रिय को उच्चता के शिखर पर ले जाता है तो उसका जीवन अपूर्णता व अपरिपक्वता के कारण रसमय नहीं हो पाता । रसमयता के लिए दशों इन्द्रियों का शृङ्ग पर - - चोटी पर पहुँचना आवश्यक है । बस, अब इन दश शृङ्गों के द्वारा यह अपने ब्रह्मलोकवास का संकेत कर रहा होता है—यह तो अवश्य ब्रह्म को पाएगा ही। सच्चे मोक्ष-सुख का लाभ करके यह सचमुच 'शुन: शेप' हो जाएगा।

भावार्थ -

जीव का उन्नति-पर्वत दशशृङ्ग है – दस शिखरोंवाला है ।

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