Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1678
ऋषिः - वालखिल्यम् (आयुः काण्वः) देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
2

स꣢꣫मिन्द्रो꣣ रा꣡यो꣢ बृह꣣ती꣡र꣢धूनुत꣣ सं꣢ क्षो꣣णी꣢꣫ समु꣣ सू꣡र्य꣢म् । स꣢ꣳ शु꣣क्रा꣢सः꣣ शु꣡च꣢यः꣣ सं꣡ गवा꣢꣯शिरः꣣ सो꣢मा꣣ इ꣡न्द्र꣢ममन्दिषुः ॥१६७८॥

स्वर सहित पद पाठ

स꣢म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । रा꣡यः꣢꣯ । बृ꣣हतीः꣢ । अ꣣धूनुत । स꣢म् । क्षो꣣णी꣡इति꣢ । सम् । उ꣣ । सू꣡र्य꣢꣯म् । सम् । शु꣣क्रा꣡सः꣢ । शु꣡च꣢꣯यः । सम् । ग꣡वा꣢꣯शिरः । गो । आ꣣शिरः । सो꣡माः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣मन्दिषुः ॥१६७८॥


स्वर रहित मन्त्र

समिन्द्रो रायो बृहतीरधूनुत सं क्षोणी समु सूर्यम् । सꣳ शुक्रासः शुचयः सं गवाशिरः सोमा इन्द्रममन्दिषुः ॥१६७८॥


स्वर रहित पद पाठ

सम् । इन्द्रः । रायः । बृहतीः । अधूनुत । सम् । क्षोणीइति । सम् । उ । सूर्यम् । सम् । शुक्रासः । शुचयः । सम् । गवाशिरः । गो । आशिरः । सोमाः । इन्द्रम् । अमन्दिषुः ॥१६७८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1678
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment

पदार्थ -

(इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (बृहतीः रायः) = विशाल ऐश्वर्यों को अधूनुत प्रेरित करता है [धू=to cause, to move] क्(षोणी:) = नाना पृथिवियों को (सम् अधूनुत) = अपने-अपने मार्ग पर प्रेरित करता है, (उ) = तथा (सूर्यम्) = सूर्य को सम् [ अधूनुत ] = सम्यक् प्रेरणा देता है।

स्तोता प्रभु का स्तवन करता है, उसके प्रति नतमस्तक होता है - उसकी महिमा का स्मरण करता है। इस श्रव्यभक्ति के साथ वह अपने जीवन को सुन्दर बनाकर उस प्रभु की दृश्य भक्ति के लिए भी उद्यत होता है । वस्तुतः यह दृश्यभक्ति ही प्रभु को प्रीणत करनेवाली होती है। श्रव्यभक्ति का परिणाम तो केवल एक लक्ष्यदृष्टि को पैदा करना है । लक्ष्यदृष्टि के उत्पन्न हो जाने पर ये स्तोता अपने जीवन को 'शक्तिशाली, पवित्र, निर्दोष व विनीत' बनाकर सचमुच प्रभु को आराधित कर पाते हैं ।

(शुक्रासः) = शक्तिशाली – शक्ति के पुञ्ज [शुक्रम्-वीर्यम्] (शुचय:) = धन की दृष्टि से पवित्र [योऽर्थे शुचिर्हि स शुचि:] (गवाशिर:) = इन्द्रियों के मलों को सर्वथा नष्ट करनेवाले [गो, आ, शृ] (सोमाः) = विनीत पुरुष ही (इन्द्रम्) = उस निरतिशय ऐश्वर्य सम्पन्न प्रभु को (सम् अमन्दिषुः) = सम्यक्तया प्रसन्न करते हैं, अर्थात् प्रभु की सच्ची स्तुति तो यही है कि १. पुरुष शक्तिशाली बने [शुक्रासः]। २. पवित्र मार्ग से ही धन कमाये [शुचय: ] । ३. प्राणायामादि द्वारा इन्द्रिय-मलों को नष्ट करके इन्द्रियों को निर्दोष बनाये [गवाशिर: ] तथा ४. विनीत बने [सोमाः] । इस प्रकार अपने जीवन को सदा सुन्दर बनाने में लगा हुआ 'आयुः'-क्रियाशील व्यक्ति ही प्रभु का सच्चा स्तोता है।

भावार्थ -

 प्रभु की महिमा का स्मरण करके हम विनीत बनें और सचमुच प्रभु के स्तोता हों ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top