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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1687
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती)
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
2
तं꣡ गू꣢र्धया꣣꣬ स्व꣢꣯र्णरं दे꣣वा꣡सो꣢ दे꣣व꣡म꣢र꣣तिं꣡ द꣢धन्विरे । दे꣣वत्रा꣢ ह꣣व्य꣡मू꣢हिषे ॥१६८७॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । गू꣢꣯र्धय । स्व꣡र्णरम् । स्वः꣡ । न꣣रम् । देवा꣡सः꣢ । दे꣣व꣢म् । अ꣣रति꣢म् । द꣣धन्विरे । देवत्रा꣢ । ह꣣व्य꣡म् । ऊ꣣हिषे ॥१६८७॥
स्वर रहित मन्त्र
तं गूर्धया स्वर्णरं देवासो देवमरतिं दधन्विरे । देवत्रा हव्यमूहिषे ॥१६८७॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । गूर्धय । स्वर्णरम् । स्वः । नरम् । देवासः । देवम् । अरतिम् । दधन्विरे । देवत्रा । हव्यम् । ऊहिषे ॥१६८७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1687
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - उपासना व सुखमय स्थिति
पदार्थ -
यह मन्त्र १०९ संख्या पर द्रष्टव्य है । सरलार्थ यह है। (तम्) = उस (स्वर्णरम्) = सुखमय स्थिति में पहुँचानेवाले प्रभु का (गूर्धय) = अर्चन करो । (देवासः) = समझदार ज्ञानी लोग (देवम्) = उस दिव्य गुण परिपूर्ण (अरतिम्) = विषयों में अरममाण प्रभु की दधन्विरे उपासना करते हैं। (देवत्रा) = देवताओं में (हव्यम्) = देने योग्य पदार्थों को (ऊहिषे) = प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ -
हम प्रभु की उपासना करें, जिससे सुखमय स्थिति में पहुँचें।