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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1697
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
2
दा꣣ना꣢ मृ꣣गो꣡ न वा꣢꣯र꣣णः꣡ पु꣢रु꣣त्रा꣢ च꣣र꣡थं꣢ दधे । न꣡ कि꣢ष्ट्वा꣣ नि꣡ य꣢म꣣दा꣢ सु꣣ते꣡ ग꣢मो म꣣हा꣡ꣳश्च꣢र꣣स्यो꣡ज꣢सा ॥१६९७॥
स्वर सहित पद पाठदा꣣ना꣢ । मृ꣣गः꣢ । न । वा꣣रणः꣢ । पु꣣रुत्रा꣢ । च꣣र꣡थ꣢म् । द꣣धे । न꣢ । किः꣣ । त्वा । नि꣢ । य꣣मत् । आ꣢ । सु꣣ते꣢ । ग꣣मः । महा꣢न् । च꣣रसि । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥१६९७॥
स्वर रहित मन्त्र
दाना मृगो न वारणः पुरुत्रा चरथं दधे । न किष्ट्वा नि यमदा सुते गमो महाꣳश्चरस्योजसा ॥१६९७॥
स्वर रहित पद पाठ
दाना । मृगः । न । वारणः । पुरुत्रा । चरथम् । दधे । न । किः । त्वा । नि । यमत् । आ । सुते । गमः । महान् । चरसि । ओजसा ॥१६९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1697
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
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विषय - महान् व ओजस्वी
पदार्थ -
न प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि मेधातिथि (दाना) =[दान् to cut] बुराइयों – स्वार्थ की वृत्तियों को काटनेवाला होता है । (मृगः) = इसी उद्देश्य से यह [मृग अन्वेषणे] अपना अन्वेषण, अर्थात् आत्मालोचन करनेवाला बनता है। इसी भावना को १६९२ मन्त्र में 'उरामथि' शब्द द्वारा कहा गया था। इस मार्ग पर चलते हुए कोई भी सांसारिक कार्य इसे (न वारणः) = रोकनेवाला नहीं होता । यह (पुरुत्रा) = पालन व पूरण के क्षेत्र में चरथम्=गति को दधे धारण करता है, अर्थात् पालनात्मक व पूरणात्मक कार्यों में लगा रहता है ।
प्रभु इस मेधातिथि से कहते हैं कि- (त्वा) = तुझे अपने इस पालनात्मक कार्य में (न कि: नियमत्) = कोई भी रोकता नहीं। तू लोकस्तुति व लोकापवाद से अथवा धनागम के लोभ व धननाशभय से अपने इस न्यायमार्ग से विचलित नहीं होता । तू (सुते) = निर्माणात्मक कार्यों में (आगम:) = सर्वथा प्रवृत्त रहता है ।
(महान्) = विशाल हृदयवाला बनकर तू (ओजसा) = बल के साथ (चरसि) = विचरण करता है । तेरी कार्यनीति ढिलमिल weak-kneed नहीं होती । तुझमें संकुचित हृदयता तो नहीं होती, परन्तु साथ ही भय भी नहीं होता । 'किसी की नाराज़गी का भय ही बना रहे ' तब तो किसी भी कार्य का करना सम्भव ही नहीं। यह मेधातिथि ओजस्वी बनकर चलता है तभी तो लोकहित करने में कुछ समर्थ हो पाता है।
भावार्थ -
हम आत्मालोचन के द्वारा बुराइयों को ढूँढ-ढूँढकर काट डालें और महान् व ओजस्वी बनकर निर्माणात्मक कार्यों में प्रवृत्त हों ।
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