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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1696
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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क꣡ ईं꣢ वेद सु꣣ते꣢꣫ सचा꣣ पि꣡ब꣢न्तं꣣ कद्वयो꣢꣯ दधे । अ꣣यं यः पुरो꣢꣯ विभि꣣नत्त्योज꣢꣯सा मन्दा꣣नः꣢ शि꣣प्र्य꣡न्ध꣢सः ॥१६९६॥

स्वर सहित पद पाठ

कः꣢ । ई꣣म् । वेद । सुते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯न्तम् । कत् । व꣡यः꣢꣯ । द꣣धे । अय꣢म् । यः । पु꣡रः꣢꣯ । वि꣣भि꣡न꣢त्ति । वि꣣ । भि꣡नत्ति꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा । म꣣न्दानः꣢ । शि꣣प्री꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः ॥१६९६॥


स्वर रहित मन्त्र

क ईं वेद सुते सचा पिबन्तं कद्वयो दधे । अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥१६९६॥


स्वर रहित पद पाठ

कः । ईम् । वेद । सुते । सचा । पिबन्तम् । कत् । वयः । दधे । अयम् । यः । पुरः । विभिनत्ति । वि । भिनत्ति । ओजसा । मन्दानः । शिप्री । अन्धसः ॥१६९६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1696
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

२९७ संख्या पर मन्त्रार्थ इस रूप में दिया गया है

(कः) = कौन (ईम्) = निश्चय से वेद - जानता है कि सुते उत्पन्न जगत् में (सचा) = मिलकर; नकि = अकेले—(पिबन्तम्) = प्राकृतिक वस्तुओं का उपभोग करते हुए को १. (क-द्वयः) = इहलोक व परलोक दोनों लोकों का सुख (दधे) = धारण करता है । २. (अयं यः) = यह जो (पुरः) = असुरों की पुरियों को [काम, क्रोध, लोभ के दुर्गों को] विभिनत्ति नष्ट कर डालता है। ३. (ओजसा मन्दान:) = ओज से सदा प्रसन्नतामय होता है और ४. (अन्धसः) = सोम के द्वारा शिप्री-शिरस्त्राणवाला होता है ।

भावार्थ -

हम अकेले खानेवाले न बनें। 

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