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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1709
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
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य꣢ इ꣣दं꣡ प्र꣢तिपप्र꣣थे꣢ य꣣ज्ञ꣢स्य꣣꣬ स्व꣢꣯रुत्ति꣣र꣢न् । ऋ꣣तू꣡नुत्सृ꣢꣯जते व꣣शी꣢ ॥१७०९
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । इ꣡द꣢म् । प्र꣣तिपप्रथे꣢ । प्र꣣ति । पप्रथे꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । स्वः꣡ । उ꣣त्तिर꣢न् । उ꣣त् । तिर꣢न् । ऋ꣣तू꣢न् । उत् । सृ꣣जते । वशी꣢ ॥१७०९॥
स्वर रहित मन्त्र
य इदं प्रतिपप्रथे यज्ञस्य स्वरुत्तिरन् । ऋतूनुत्सृजते वशी ॥१७०९
स्वर रहित पद पाठ
यः । इदम् । प्रतिपप्रथे । प्रति । पप्रथे । यज्ञस्य । स्वः । उत्तिरन् । उत् । तिरन् । ऋतून् । उत् । सृजते । वशी ॥१७०९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1709
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - घर-घर में यज्ञ का विस्तार
पदार्थ -
गत मन्त्र के प्रकरण के अनुसार हमें वह नेता चाहिए (यः) = जो (स्वः) = सुख को (उत्तिरन्) = बढ़ाने के हेतु से [हेतौ शतृप्रत्ययः] (यज्ञस्य इदम्) = यज्ञ की भावना को प्(रतिपप्रथे) = प्रत्येक घर में विस्तृत करता है। ‘यज्ञ के बिना कल्याण नहीं', इसमें तो शक है ही नहीं । अयज्ञ पुरुष का न यह लोक बनता है, न परलोक । यज्ञ से दोनों ही लोकों का भला होता है । यह नेता यज्ञ की भावना का घरघर में विस्तार करता हुआ प्रजा के सुखों को बढ़ाता है।
(वशी) = अपनी इन्द्रियों व मन को वश में करनेवाला यह 'वैश्वानर अग्नि' (ऋतून्) = ऋतुओं को (उत्सृजते) = उत्कृष्ट बनाता है । वेद में भिन्न-भिन्न स्थानों में इस बात का प्रतिपादन है कि मनुष्य के आचरण-पतन का परिणाम ही ‘आधिदैविक आपत्तियाँ' हुआ करती हैं। उत्कृष्ट आचरणवाले नेता ही इन आधिदैविक आपत्तियों का निराकरण करनेवाले होते हैं । वस्तुतः ऐसे श्रेष्ठ नेताओं से ही यह जगत् धारण किया जाता है।
संक्षेप में यह नेता दो बातें करता है – १. घर-घर में यज्ञ की भावना का प्रचार करता है, तथा २. अपना जीवन पूर्ण संयमवाला बनाता है । - इन दो बातों के दो परिणाम होते हैं – १. सुख की वृद्धि होती है तथा २. ऋतुएँ बड़ी उत्कृष्ट होती हैं, मानवजीवन के लिए अनुकूलतावाली होती हैं ।
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