Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1725
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - उषाः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
2

प्र꣢ति꣣ ष्या꣢ सू꣣न꣢री꣣ ज꣡नी꣢ व्यु꣣च्छ꣢न्ती꣣ प꣢रि꣣ स्व꣡सुः꣢ । दि꣣वो꣡ अ꣢दर्शि दुहि꣣ता꣢ ॥१७२५॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣡ति꣢꣯ । स्या । सू꣣न꣡री꣢ । सु꣣ । न꣡री꣢꣯ । ज꣡नी꣢꣯ । व्यु꣣च्छ꣡न्ती꣢ । वि꣣ । उच्छ꣡न्ती꣢ । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣡सुः꣢꣯ । दि꣣वः꣢ । अ꣣दर्शि । दुहिता꣢ ॥१७२५॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रति ष्या सूनरी जनी व्युच्छन्ती परि स्वसुः । दिवो अदर्शि दुहिता ॥१७२५॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रति । स्या । सूनरी । सु । नरी । जनी । व्युच्छन्ती । वि । उच्छन्ती । परि । स्वसुः । दिवः । अदर्शि । दुहिता ॥१७२५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1725
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment

पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्रों के ऋषि 'पुरुमीढ और अजमीढ' हैं। मीढ का अर्थ है ‘संग्राम'। ‘पुरु' का अर्थ है–पालक व पूरक, और 'अज' का का अर्थ है गति के द्वारा अशुभ का परे क्षेपन करनेवाला। जिनका संग्राम सचमुच जीवन में पूरणता को लानेवाला तथा गति के द्वारा अशुभ को दूर करनेवाला है वे 'पुरुमीढ व अजमीढ' हैं । ये १. पड़ोसियों के साथ व्यर्थ में लड़ाई झगड़े में नहीं पड़े हुए, २. न ही ये आर्थिक संग्रामों में उलझे हैं । इनका संग्राम तो ३. अध्यात्मसंग्राम है – ये काम-क्रोधादि को नष्ट करने में तत्पर हैं। ये उषः को प्रकाशित होते देखकर उषा से भी प्रकाश व ज्ञान का उपदेश लेते हैं और कहते हैं कि।

(स्य) = अरे ! वह उषा (अदर्शि) = दिख रही है, जो १. (प्रतिसूनरी) = एक-एक मनुष्य को उत्तम प्रकार से नेतृत्व देनेवाली है— आगे और आगे ले चल रही है— सोये हुओं को मानो जगा रही है और क्रिया में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित कर रही है ।

२. (जनी) = यह प्रादुर्भाव करनेवाली है— क्या क्रिया में प्रवृत्त करके यह मनुष्य का विकास न करेगी ? विकास के लिए ही तो यह ३. (स्वसुः परि) = स्वसा के तुल्य अपनी बहिन रात्रि के उपरान्त (वि-उच्छन्ती) = विशेषरूप से अन्धकार को दूर कर रही है। अन्धकार में विकास का सम्भव न था। इस उषा ने उस अन्धकार को दूर कर दिया है ४. यह उषा तो (दिवः) = प्रकाश की दुहिता पूरक है - दुह प्रपूरणे । =

संक्षेप में कहने का अभिप्राय यह कि रात्रि में मनुष्य आराम से लेटा था। उसकी थकावट आदि दूर होकर तथा टूटे-फूटे घरों [Cells] का नवीनीकरण होकर मनुष्य रात में प्रफुल्ल हो जाता है। इसी से रात ‘स्वसा' कहलाई है— उत्तम स्थितिवाली, परन्तु तरोताज़ा होकर भी मनुष्य

अन्धकार में किसी तरह की उन्नति नहीं कर सकता। उषा आती है १. अन्धकार को दूर करती है [वि उच्छन्ती], २. प्रकाश भरती है [दिवो दुहिता], ३. मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है [सूनरी], और ४. इस प्रकार उसके विकास को सिद्ध करती है [जनी]।

भावार्थ -

हम उष:काल के काव्यमय सौन्दर्य से प्रेरणा प्राप्त करके जीवन को सुन्दर बनाने का निश्चय करें ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top