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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1739
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
सो꣢ अ꣣ग्नि꣡र्यो वसु꣢꣯र्गृ꣣णे꣢꣫ सं यमा꣣य꣡न्ति꣢ धे꣣न꣡वः꣢ । स꣡म꣢꣯र्वन्तो रघु꣣द्रु꣢वः꣣ स꣡ꣳ सु꣢जा꣣ता꣡सः꣢ सू꣣र꣢य꣣ इ꣡ष꣢ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥१७३९॥
स्वर सहित पद पाठसः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । यः । व꣡सुः꣢꣯ । गृ꣣णे꣢ । सम् । यम् । आ꣣य꣡न्ति꣢ । आ꣣ । य꣡न्ति꣢꣯ । धे꣣न꣡वः꣢ । सम् । अ꣡र्व꣢꣯न्तः । र꣣घुद्रु꣡वः꣢ । र꣣घु । द्रु꣡वः꣢꣯ । सम् । सु꣣जाता꣡सः꣢ । सु꣣ । जाता꣡सः꣢ । सू꣣र꣡यः꣢ । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥१७३९॥
स्वर रहित मन्त्र
सो अग्निर्यो वसुर्गृणे सं यमायन्ति धेनवः । समर्वन्तो रघुद्रुवः सꣳ सुजातासः सूरय इषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥१७३९॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । अग्निः । यः । वसुः । गृणे । सम् । यम् । आयन्ति । आ । यन्ति । धेनवः । सम् । अर्वन्तः । रघुद्रुवः । रघु । द्रुवः । सम् । सुजातासः । सु । जातासः । सूरयः । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥१७३९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1739
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - अग्नि, अस्त, व स्तोता
पदार्थ -
अग्निः – (अग्निः सः) = जीवन-पथ पर आगे बढ़नेवाला वही है (य:) = जो (वसुः) = निवास के प्रकार को जानता है - जो जीवन में उत्तमता से रहता है ।
प्रशंसनीय घर–प्रभु कहते हैं कि (गृणे) = मैं उसी जीव की प्रशंसा करता हूँ । १. (यम्) = जिसको (धेनवः) = दुधारू गौवें (सम् आयन्ति) = सम्यक् प्राप्त होती है, अर्थात् जो अपने घर में दुधारू गौवों को रखता है। २. जिसको (रघुद्रुवः) = तीव्रगतिवाले (अर्वन्तः) = घोड़े (समायन्ति) = सम्यक्तया प्राप्त होते हैं, अर्थात् जिसके घर में उत्तम घोड़े विद्यमान हैं ।
। वैदिक संस्कृति में मनुष्य का दायाँ हाथ गौ है और बायाँ हाथ घोड़ा । गौ 'ब्रह्म' = ज्ञान की वृद्धि में सहायक है तो ‘अश्व'='क्षत्र'=शक्ति की वृद्धि का साधन है। ब्रह्म और क्षेत्र में विकास के साधनभूत होने से वैदिक पुरुष गौ और अश्व को भी घर का अङ्ग ही समझता है। पत्नी से यह भी कहा जाता है कि 'शिवा पशुभ्यः' - तूने घर में इन पशुओं के लिए भी हितकर होना ।
३. प्रभु उसकी प्रशंसा करते हैं जिसे (सुजातास:) = [जनी प्रादुर्भावे] जीवन-विकास को साधनेवाले (सूरयः) = विद्वान् लोग (समायन्ति) = प्राप्त होते हैं। घर में इस प्रकार के विकसित जीवनवाले विद्वानों का आना आवश्यक है । इनके आते-जाते रहने से घर का वातावरण बड़ा सुन्दर बना रहता है। एवं, प्रशंसनीय घर वही है जहाँ गौवें हैं, घोड़े हैं, जहाँ चरित्रवान् विद्वानों का आना-जाना है।
स्तोता – हे प्रभो ! आप (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिए (इषम्) = प्रेरणा (आभर) = प्राप्त कराइए तथा (स्तोतृभ्यः) = इन स्तोताओं से इषम् प्रेरणा को आभर= लोगों में परिपूर्ण कीजिए । सच्चा स्तोता वही है जो प्रेरणा को सुनाता है और औरों को सुनाने का प्रयत्न करता है।
भावार्थ -
हम अग्नि बनें, घर को उत्तम बनाए; प्रभु के सच्चे स्तोता बनें ।