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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1746
ऋषिः - बुधगविष्ठिरावात्रेयौ
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
अ꣡बो꣢ध्य꣣ग्निः꣢ स꣣मि꣢धा꣣ ज꣡ना꣢नां꣣ प्र꣡ति꣢ धे꣣नु꣡मि꣢वाय꣣ती꣢मु꣣षा꣡स꣢म् । य꣣ह्वा꣡ इ꣢व꣣ प्र꣢ व꣣या꣢मु꣣ज्जि꣡हा꣢नाः꣣ प्र꣢ भा꣣न꣡वः꣢ सस्रते꣣ ना꣢क꣣म꣡च्छ꣢ ॥१७४६॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡बो꣢꣯धि । अ꣣ग्निः꣢ । स꣣मि꣡धा꣢ । स꣣म् । इ꣡धा꣢꣯ । ज꣡ना꣢꣯नाम् । प्र꣡ति꣢꣯ । धे꣣नु꣢म् । इ꣣व । आयती꣢म् । आ꣣ । यती꣢म् । उ꣣षा꣡स꣢म् । य꣣ह्वा꣢ । इ꣣व । प्र꣢ । व꣣या꣢म् । उ꣣ज्जि꣡हा꣢नाः । उ꣣त् । जि꣡हा꣢꣯नाः । प्र । भा꣣न꣡वः꣢ । स꣣स्रते । ना꣡क꣢꣯म् । अ꣡च्छ꣢꣯ ॥१७४६॥
स्वर रहित मन्त्र
अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् । यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सस्रते नाकमच्छ ॥१७४६॥
स्वर रहित पद पाठ
अबोधि । अग्निः । समिधा । सम् । इधा । जनानाम् । प्रति । धेनुम् । इव । आयतीम् । आ । यतीम् । उषासम् । यह्वा । इव । प्र । वयाम् । उज्जिहानाः । उत् । जिहानाः । प्र । भानवः । सस्रते । नाकम् । अच्छ ॥१७४६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1746
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - यात्रा- क्रम
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र की व्याख्या ७३ संख्या पर दी गयी है । सरलार्थ यह है-
१. (समिधा) = पृथिवी, अन्तरिक्ष तथा धुलोकरूप समिधाओं के द्वारा – इन पदार्थों के ज्ञान के द्वारा – आचार्यरूप अग्नि से (अग्नि:) = विद्यार्थिरूप अग्नि (अबोधि) = प्रज्वलित की जाती है [ अग्निना अग्निः समिध्यते], अर्थात् त्रिलोकी के पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके एक ब्रह्मचारी अग्नि के समान प्रकाशमय होता है ।
२. अब द्वितीयाश्रम में यह (प्रति आयतीम् उषासम्) = प्रत्येक आनेवाली उषा में (जनानां धेनुमिव) = मनुष्यों के लिए धेनु के समान होता है। धेनु जैसे दूध से, ये गृहस्थ उसी प्रकार दान से प्रजा का पालन करता है ।
३. अब गृहस्थ के पश्चात् (यह्वाः इव) = जैसे पक्षी बड़ा होकर (वयाम्) = शाखा को (प्र उज्जिहानाः) = छोड़ने की इच्छावाले होते हैं, उसी प्रकार यह भी अब गृह को छोड़कर वनस्थ होने का संकल्प करता है ।
४. वन में साधना के द्वारा (भानवः) = दीप्त बनकर - सूर्य के समान चमकता हुआ यह संन्यासी (नाकम् अच्छ) = मोक्ष की ओर प्रसस्त्रते बढ़ चलता है ।
भावार्थ -
मेरी जीवन-यात्रा क्रमशः आगे और आगे बढ़ते हुए पूर्ण हो ।
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