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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1745
ऋषिः - अवस्युरात्रेयः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
4
आ꣢ नो꣣ र꣡त्ना꣢नि꣣ बि꣡भ्र꣢ता꣣व꣡श्वि꣢ना꣣ ग꣡च्छ꣢तं यु꣣व꣢म् । रु꣢द्रा꣣ हि꣡र꣢ण्यवर्तनी जुषा꣣णा꣡ वा꣢जिनीवसू꣣ मा꣢ध्वी꣣ म꣡म꣢ श्रुत꣣ꣳ ह꣡व꣢म् ॥१७४५॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । नः꣣ । र꣡त्ना꣢꣯नि । बि꣡भ्र꣢꣯तौ । अ꣡श्वि꣢꣯ना । ग꣡च्छ꣢꣯तम् । यु꣣व꣢म् । रु꣡द्रा꣢꣯ । हि꣡र꣢꣯ण्यवर्तनी । हि꣡र꣢꣯ण्य । व꣣र्तनीइ꣡ति꣢ । जु꣣षाणा꣢ । वा꣣जिनीवसू । वाजिनी । वसूइ꣡ति꣢ । माध्वी꣢꣯इ꣡ति꣢ । म꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तम् । ह꣡व꣢꣯म् ॥१७४५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो रत्नानि बिभ्रतावश्विना गच्छतं युवम् । रुद्रा हिरण्यवर्तनी जुषाणा वाजिनीवसू माध्वी मम श्रुतꣳ हवम् ॥१७४५॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । नः । रत्नानि । बिभ्रतौ । अश्विना । गच्छतम् । युवम् । रुद्रा । हिरण्यवर्तनी । हिरण्य । वर्तनीइति । जुषाणा । वाजिनीवसू । वाजिनी । वसूइति । माध्वीइति । मम । श्रुतम् । हवम् ॥१७४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1745
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - रत्नों का लाभ
पदार्थ -
१. हे (अश्विाना) = प्राणापानो ! (रत्नानि बिभ्रतौ) = रमणीय स्वास्थ्य, नैर्मल्य व ज्ञान आदि — धनों को प्राप्त कराते हुए (नः) = हमारे प्रति (युवम्) = आप दोनों (आगच्छतम्) = आओ । (‘प्राणापाना इह मे रमन्ताम्') = प्राण और अपान जब शरीर में रमण करते हैं तब शरीर रमणीय रत्नों की खान बनता है। रत्नों के द्वारा ये प्राणापान इस शरीर-रथ को अलंकृत कर डालते हैं। २. (रुद्रा) = ये प्राणापान रुद्र हैं— रोग व द्वेषादिरूप शत्रुओं के लिए भयंकर हैं । स्वास्थ्य व नैर्मल्य के साधक हैं।
३. (हिरण्यवर्तनी) = जीवन के मार्ग को ज्योतिर्मय बनानेवाले हैं।
४. (जुषाणा) = प्रीतिपूर्वक प्रभु का सेवन करनेवाले हैं। [जुष्=प्रीतिसेवनयोः] । प्राण-साधना से चित्तवृत्ति एकाग्र होती है और मन प्रभु में केन्द्रित होकर अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करता है|
५. (वाजिनीवसू) = शक्तिरूप धन को प्राप्त करानेवाले ये प्राणापान (माध्वी) = अत्यन्त मधुर हैं । प्राणसाधना से शक्ति की अत्यधिक वृद्धि होती हैं । हे प्राणापानो ! (मम हवं श्रुतम्) = मेरी पुकार सुनो।
भावार्थ -
प्राणसाधना के द्वारा हम रमणीय धनों का लाभ करें।
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