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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1750
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
2
रु꣡श꣢द्वत्सा꣣ रु꣡श꣢ती श्वे꣣त्या꣢गा꣣दा꣡रै꣢गु कृ꣣ष्णा꣡ सद꣢꣯नान्यस्याः । स꣣मान꣡ब꣢न्धू अ꣣मृ꣡ते꣢ अनू꣣ची꣢꣫ द्यावा꣣ व꣡र्णं꣢ चरत आमिना꣣ने꣢ ॥१७५०॥
स्वर सहित पद पाठरु꣡श꣢꣯द्वत्सा । रु꣡श꣢꣯त् । व꣣त्सा । रु꣡श꣢꣯ती । श्वे꣣त्या꣢ । आ । अ꣣गात् । आ꣡रै꣢꣯क् । उ꣣ । कृष्णा꣢ । स꣡द꣢꣯नानि । अ꣣स्याः । समान꣡ब꣢꣯न्धू । समान꣢ । ब꣣न्धूइ꣡ति꣢ । अ꣣मृ꣡ते꣢ । अ꣣ । मृ꣢ते꣢꣯इ꣡ति꣢ । अ꣣नूची꣡इति꣢ । द्या꣡वा꣢꣯ । व꣡र्ण꣢꣯म् । च꣣रतः । आमिनाने꣢ । आ꣣ । मिनाने꣡इति꣢ ॥१७५०॥
स्वर रहित मन्त्र
रुशद्वत्सा रुशती श्वेत्यागादारैगु कृष्णा सदनान्यस्याः । समानबन्धू अमृते अनूची द्यावा वर्णं चरत आमिनाने ॥१७५०॥
स्वर रहित पद पाठ
रुशद्वत्सा । रुशत् । वत्सा । रुशती । श्वेत्या । आ । अगात् । आरैक् । उ । कृष्णा । सदनानि । अस्याः । समानबन्धू । समान । बन्धूइति । अमृते । अ । मृतेइति । अनूचीइति । द्यावा । वर्णम् । चरतः । आमिनाने । आ । मिनानेइति ॥१७५०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1750
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - तम और रज [ रजस् व तमस् ]
पदार्थ -
मन्त्र में वर्णन हुआ है कि सूर्य उषा का पुत्र है। उषा सूर्य को जन्म देती है, तो यह उषा (‘रुशद् वत्सा') = चमकते हुए बछड़ेवाली है, स्वयं भी तो (रुशती) = चमकती हुई है । (श्वेत्या) = श्वेतवर्णवालों में उत्तम है। किस प्रकार रात्रि में अन्धकार-ही- अन्धकार था, उषा के आते ही चारों ओर प्रकाश हुआ और अन्धकार नष्ट हो गया । यह उषा (आगात्) = आई है । (कृष्णा) = अन्धकार के कारण कृष्ण वर्णवाली रात्रि सचमुच 'कृष्णा' तो है ही। इसलिए भी यह 'कृष्णा' है कि यह सबको अपनेअपने घर की ओर आकृष्ट करती है [कृष्ण-खैंचना] सभी कार्यों को बीच में ही छोड़कर घर आने की करते हैं। यह कृष्णा रात्रि (अस्याः सदनानि) = इसके [अपने] स्थानों को (उ) = निश्चय से (आरैक्) = खाली कर देती है । रात्रि समाप्त होती है और उषा आती है । इसके आते ही सब लोग अपने आहार की खोज में चल पड़ते हैं । ।
यह संसार में होनेवाली प्राकृतिक घटना अध्यात्म में भी इस रूप से चलती है कि तमोगुण की मोहमयी निद्रा रात्रि के समान होती है, और यह निरन्तर गतिवाले रजोगुणरूप उषाकाल के लिए स्थान खाली कर देती है। मनुष्य तमोगुण प्रधानावस्था में सोया होता है, रजोगुण के प्रबल होने पर उठता है और कार्यों में प्रवृत्त हो जाता है— अर्थार्जन ही उसका मुख्य ध्येय हो जाता है ।
ये तम और रज (समानबन्धू) = समानरूप से जीव को बाँधनेवाले हैं। (अमृते) = ये कभी मरते नहीं,
इनका पूर्ण विनाश सम्भव नहीं । इन्हें सत्त्वगुण से अभिभूत तो किया जा सकता है, परन्तु इन्हें समाप्त कर देना सम्भव नहीं। (अनूची) = ये एक-दूसरे के पीछे आनेवाले हैं- तमोगुण के पश्चात् रजोगुण, और रजोगुण के बाद तमोगुण । इस प्रकार एक-दूसरे के पीछे आते हुए ये (द्यावा) = प्रकाश के–सत्त्वगुण के–(वर्णम्) = स्वरूप को (आमिनाने) = कुछ हिंसित-सा करते हुए (चरतः) = हमारे जीवन में विचरण करते हैं। तमोगुण और रजोगुण सत्त्व को प्रबल नहीं होने देते । ये सत्त्व को नष्ट-सा किये रहते हैं। इनके कारण सत्त्वगुण दबा रहता है । कभी प्रभुकृपा से मनुष्य इन्हें जीतकर सत्त्वगुणवाला बन पाता है ।
भावार्थ -
हम प्रयत्न करें कि तम और रज से ऊपर उठकर सत्त्व में अवस्थित हों ।
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