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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1751
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
2
स꣣मानो꣢꣫ अध्वा꣣ स्व꣡स्रो꣢रन꣣न्त꣢꣫स्तम꣣न्या꣡न्या꣢ चरतो दे꣣व꣡शि꣢ष्टे । न꣡ मे꣢थेते꣣ न꣡ त꣢स्थतुः सु꣣मे꣢के꣣ न꣢क्तो꣣षा꣢सा꣣ स꣡म꣢नसा꣣ वि꣡रू꣢पे ॥१७५१॥
स्वर सहित पद पाठस꣣मानः꣢ । स꣣म् । आनः꣢ । अ꣡ध्वा꣢꣯ । स्व꣡स्रोः꣢꣯ । अ꣣नन्तः꣣ । अ꣣न् । अन्तः꣢ । तम् । अ꣣न्या꣡न्या꣢ । अ꣣न्या꣢ । अ꣣न्या꣢ । चरतः । देव꣡शि꣢ष्टे । दे꣣व꣢ । शि꣣ष्टेइ꣡ति꣢ । न । मे꣣थेतेइ꣡ति꣢ । न । त꣣स्थतुः । सुमे꣡के꣢ । सु꣣ । मे꣣के꣢꣯इ꣡ति꣢ । न꣡क्ता꣢꣯ । उ꣣षा꣡सा꣢ । स꣡म꣢꣯नसा । स । म꣣नसा । वि꣡रू꣢꣯पे । वि । रू꣣पेइ꣡ति꣢ ॥१७५१॥
स्वर रहित मन्त्र
समानो अध्वा स्वस्रोरनन्तस्तमन्यान्या चरतो देवशिष्टे । न मेथेते न तस्थतुः सुमेके नक्तोषासा समनसा विरूपे ॥१७५१॥
स्वर रहित पद पाठ
समानः । सम् । आनः । अध्वा । स्वस्रोः । अनन्तः । अन् । अन्तः । तम् । अन्यान्या । अन्या । अन्या । चरतः । देवशिष्टे । देव । शिष्टेइति । न । मेथेतेइति । न । तस्थतुः । सुमेके । सु । मेकेइति । नक्ता । उषासा । समनसा । स । मनसा । विरूपे । वि । रूपेइति ॥१७५१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1751
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - समानबन्धू
पदार्थ -
रात्रि और उषा स्वसा- बहिनों के समान हैं । तमोगुण और रजोगुण समानरूप से जीव को बाँधनेवाले हैं—ये ‘समानबन्धू' हैं, अतः आपस में बहिनों के तुल्य हैं । इन (स्वस्त्रोः) = बहिनों का (अध्वा) = मार्ग (समानः) = समान है— एक जैसा है। ये दोनों ही तमोगुण और रजोगुणरूप मार्ग मनुष्य के पतन का कारण हैं। तमोगुण काम में और रजोगुण अर्थ में आसक्त करके मनुष्य को धर्मज्ञान से वंचित रखते हैं। इनका यह मार्ग (अनन्तः) = अनन्त है - इसका अन्त होना सुगम नहीं । रात्रि के पश्चात् उषा व उषा के पश्चात् फिर रात्रि ये आती ही रहती हैं – इनकी समाप्ति होती नहीं दिखती । यह (देवशिष्टे) = उस प्रभु से शासित हुई हुई (तम्) = उस मार्ग पर (अन्या अन्या) = बारी-बारी, अलग-अलग (चरतः) = चलती हैं। मानवजीवन में भी कभी तमोगुण प्रबल है – कभी रजोगुण । इनका यह क्रम चलता-ही-चलता है। न मेथेते- ये एक-दूसरे की हिंसा नहीं करतीं । रात्रि व उषा एक दूसरे के लिए स्थान अवश्य खाली करती हैं—'परन्तु ये एक-दूसरे को नष्ट कर दें' ऐसी बात नहीं । कभी तमोगुण है तो कभी रजोगुण-कभी काम, कभी अर्थ । ये विरोधी नहीं । (न तस्थतुः)=‘ये रात्रि और उषा रुक जाएँ' ऐसा भी नहीं । ये तो चलते ही रहते हैं। तमोगुण व रजोगुण विरतगति तो होते ही नहीं । ये (नक्तोषासा सुमेके) = रात्रि व उषा उत्तम निर्माणवाले हैं—प्रभु ने इनको कितना सुन्दर बनाया है । तम व रज भी संसार के निर्माण के लिए आवश्यक हैं । संयत होने पर मानवजीवन में इनका सुन्दररूप प्रकट होता है ।
(विरूपे) = ये रात्रि व उषा विरुद्धरूपवाली हैं – एक कृष्णा, दूसरी श्वेत्या; एक अन्धकारमय दूसरी प्रकाशपूर्ण; एक गतिशून्य दूसरी गतिमय, परन्तु है (समनसा) = समान मनवाली - अर्थात् समानरूप से जीव के बन्धन की कामनावाली । तमोगुण व रजोगुण आकृतिभेद होने पर भी एक ही कार्य करनेवाले हैं— दोनों ही जीव को बाँधते हैं । कुत्स तो हम उसी दिन बनेंगे जिस दिन इनके बन्धनों को काटकर हम सत्त्वगुण में अवस्थित होंगे, [कुत्स - हिंसा करनेवाला - बन्धनों को काटनेवाला] ।
भावार्थ -
हम तम व रज के आकर्षण से ऊपर उठकर सत्त्वगुण को अपनाएँ । सत्त्वगुण ही हमें प्रभु-प्राप्ति कराएगा।
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