Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1755
ए꣣ता꣢ उ꣣ त्या꣢ उ꣣ष꣡सः꣢ के꣣तु꣡म꣢क्रत꣣ पू꣢र्वे꣣ अ꣢र्धे꣣ र꣡ज꣢सो भा꣣नु꣡म꣢ञ्जते । नि꣣ष्कृण्वाना꣡ आयु꣢꣯धानीव धृ꣣ष्ण꣢वः꣣ प्र꣢ति꣣ गा꣡वोऽरु꣢꣯षीर्यन्ति मा꣣त꣡रः꣢ ॥१७५५॥
स्वर सहित पद पाठए꣣ताः꣢ । उ꣣ । त्याः꣢ । उ꣣ष꣡सः꣢ । के꣣तु꣢म् । अ꣣क्रत । पू꣡र्वे꣢꣯ । अ꣡र्धे꣢꣯ । र꣡ज꣢꣯सः । भा꣣नु꣢म् । अ꣣ञ्जते । निष्कृण्वा꣢नाः । निः꣣ । कृण्वानाः꣢ । आ꣡यु꣢꣯धानि । इ꣣व । धृष्ण꣡वः꣢ । प्र꣡ति꣢꣯ । गा꣡वः꣢꣯ । अ꣡रु꣢꣯षीः । य꣣न्ति । मात꣡रः꣢ ॥१७५५॥
स्वर रहित मन्त्र
एता उ त्या उषसः केतुमक्रत पूर्वे अर्धे रजसो भानुमञ्जते । निष्कृण्वाना आयुधानीव धृष्णवः प्रति गावोऽरुषीर्यन्ति मातरः ॥१७५५॥
स्वर रहित पद पाठ
एताः । उ । त्याः । उषसः । केतुम् । अक्रत । पूर्वे । अर्धे । रजसः । भानुम् । अञ्जते । निष्कृण्वानाः । निः । कृण्वानाः । आयुधानि । इव । धृष्णवः । प्रति । गावः । अरुषीः । यन्ति । मातरः ॥१७५५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1755
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
विषय - रजोगुण व निर्माण
पदार्थ -
ज्ञान – रात्रि यदि तमोगुण का प्रतीक है तो उषा रजोगुण का । (एताः) = ये (त्या उषसः) = वे रजोगुण प्रवृत्तियाँ (उ) = निश्चय से (केतुम्) = ज्ञान को (अक्रत) = उत्पन्न करती हैं, यद्यपि (‘सत्त्वस्य लक्षणं ज्ञानम्') = इस वाक्य के अनुसार ज्ञान सत्त्वगुण से ही उत्पन्न होता है तथापि इस उच्च ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त सम्पूर्ण विज्ञानों के लिए रजोगुण आवश्यक है। बिना रजस्- कर्मशीलता के ज्ञान थोड़े ही प्राप्त होगा ? वस्तुतः संसार के निर्माण के लिए 'रजोजुषे जन्मनि = प्रभु भी रजोगुण युक्त होते हैं, उसी प्रकार ज्ञान-प्राप्ति के लिए एक विद्यार्थी ने भी इस रजोगुण को अपनाना है – बड़ा क्रियाशील [active] बनना है। इंग्लिश में student का अर्थ ही studious परिश्रमी होना है।
राजस्वृत्तियाँ—यह रजस् जहाँ विज्ञान को जन्म देता है, वहाँ (पूर्वे अर्धे) = जीवन के पूर्वार्ध में [गृहस्थ में] — अर्थात् युवावस्था में (रजसः भानुम्) = रजोगुण की कुछ झलक को अञ्जते व्यक्त करता है। गृहस्थ में धन के प्रति कुछ प्रेम, जीवन को कुछ भौतिक आनन्दमय करने की प्रवृत्ति इस रजस् से ही तो उत्पन्न होती है ।
निर्माण—इस गृहस्थ के बाद (इव) = जैसे (धृष्णवः) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले विजेता अपने (आयुधानि) = अस्त्रों को (निष्कृण्वाना:) = परिष्कृत कर चमकाने का प्रयत्न करते हैं उसी प्रकार (गाव:) = ये गतिशील (राजस्) = वृत्तियाँ (अ-रुषी:) = जब क्रोधशून्य होती हैं तब (मातरः) = निर्माण करनेवाली होकर (प्रतियन्ति) = प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होती हैं, अर्थात् निर्माण तो इन्हीं राजस्वृत्तियों से होता है बशर्ते कि वे क्रोध की जनक न हों । क्रोध के साथ तो निर्माण सम्भव ही नहीं। इस प्रकार उत्तम निर्माणवाला होकर यह ‘उषस्' नामक रजोगुण हमें 'गोतम' = प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बनाता है।
भावार्थ -
रजोगुण का भी जीवन के निर्माण में महान् स्थान है। क्रोध के अभाव में यह निर्माण करता है— और क्रोध की सत्ता में विनाश, अतः हम अपनी उषाओं को – रजोगुण को - 'अरुषी' क्रोधशून्य बनाएँ ।
इस भाष्य को एडिट करें