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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1755
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - उषाः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    29

    ए꣣ता꣢ उ꣣ त्या꣢ उ꣣ष꣡सः꣢ के꣣तु꣡म꣢क्रत꣣ पू꣢र्वे꣣ अ꣢र्धे꣣ र꣡ज꣢सो भा꣣नु꣡म꣢ञ्जते । नि꣣ष्कृण्वाना꣡ आयु꣢꣯धानीव धृ꣣ष्ण꣢वः꣣ प्र꣢ति꣣ गा꣡वोऽरु꣢꣯षीर्यन्ति मा꣣त꣡रः꣢ ॥१७५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए꣣ताः꣢ । उ꣣ । त्याः꣢ । उ꣣ष꣡सः꣢ । के꣣तु꣢म् । अ꣣क्रत । पू꣡र्वे꣢꣯ । अ꣡र्धे꣢꣯ । र꣡ज꣢꣯सः । भा꣣नु꣢म् । अ꣣ञ्जते । निष्कृण्वा꣢नाः । निः꣣ । कृण्वानाः꣢ । आ꣡यु꣢꣯धानि । इ꣣व । धृष्ण꣡वः꣢ । प्र꣡ति꣢꣯ । गा꣡वः꣢꣯ । अ꣡रु꣢꣯षीः । य꣣न्ति । मात꣡रः꣢ ॥१७५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एता उ त्या उषसः केतुमक्रत पूर्वे अर्धे रजसो भानुमञ्जते । निष्कृण्वाना आयुधानीव धृष्णवः प्रति गावोऽरुषीर्यन्ति मातरः ॥१७५५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एताः । उ । त्याः । उषसः । केतुम् । अक्रत । पूर्वे । अर्धे । रजसः । भानुम् । अञ्जते । निष्कृण्वानाः । निः । कृण्वानाः । आयुधानि । इव । धृष्णवः । प्रति । गावः । अरुषीः । यन्ति । मातरः ॥१७५५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1755
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब उषाओं का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (एताः उ) इन (त्याः) उन (उषसः) उषाओं ने (केतुम्) प्रज्ञान को (अक्रत) उत्पन्न कर दिया है। ये (रजसः) अन्तरिक्षलोक के (पूर्वे अर्धे) पूर्व के आधे भाग में (भानुम्) प्रकाश को (अञ्जते) व्यक्त्त कर रही हैं। (धृष्णवः) शत्रुओं को घर्षण करनेवाले योद्धा लोग (आयुधानि इव) जैसे शस्त्रास्त्रों को चमकाते हैं, वैसे ही भूप्रदेशों को (निष्कृण्वानाः) चमकाती हुई, (गावः) गमनशील, (अरुषीः) देदीप्यमान (मातरः) माता उषाएँ (प्रतियन्ति) जाती-आती हैं ॥१॥ यहाँ उषाओं में मातृत्व का आरोप होने से रूपक अलङ्कार है, ‘निष्कृण्वाना आयुधानीव धृष्णवः’ में उपमा है। ये दोनों स्वभावोक्ति के अङ्ग हैं, अतः अङ्गाङ्गिभाव-रूप सङ्कर है। प्राकृतिक उषा के वर्णन से आध्यात्मिक उषा की व्यञ्जना हो रही है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे प्राकृतिक उषा रात्रि के अँधेरे को छिन्न-भिन्न करके भूमि पर प्रकाश उत्पन्न करती है, वैसे ही आध्यात्मिक ज्योतिष्मती प्रज्ञा तमोभाव को दूर करके चित्तप्रसाद उत्पन्न करती है ॥१॥

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    पदार्थ

    (एताः-त्याः-उषसः-उ) यह वह ही परमात्मज्योति१ (रजसः-पूर्वे-अर्धे) रञ्जनात्मक भोगापवर्गरूप फल के श्रेष्ठ तथा समृद्ध२ स्थान—मोक्षधाम में (भानुम्-अञ्जते) प्रकाश अध्यात्म को युक्त करती हैं (केतुम्-अक्रत) मुक्तात्मा को प्रज्ञानमय बनाती है (धृष्णवः-निष्कृण्वाना-आयुधानि-इव) जैसे शत्रुधर्षणशील अपने शस्त्रों को चमकाते हुए दृष्टिगोचर होते हैं ऐसे (अरुषीः-गावः-मातरः प्रतियन्ति) आरोचन—प्रकाशमान ज्ञानरश्मि सबके निर्माण करने वाली परमात्मज्योति भोगरूप संसार के निर्माणार्थ पुनः प्राप्त होता है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—गोतमः (परमात्मा में अत्यन्त गतिशील उपासक)॥ देवता—उषाः (परमात्मज्योतिः)॥ छन्दः—जगती॥<br>

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    विषय

    रजोगुण व निर्माण

    पदार्थ

    ज्ञान – रात्रि यदि तमोगुण का प्रतीक है तो उषा रजोगुण का । (एताः) = ये (त्या उषसः) = वे रजोगुण प्रवृत्तियाँ (उ) = निश्चय से (केतुम्) = ज्ञान को (अक्रत) = उत्पन्न करती हैं, यद्यपि (‘सत्त्वस्य लक्षणं ज्ञानम्') = इस वाक्य के अनुसार ज्ञान सत्त्वगुण से ही उत्पन्न होता है तथापि इस उच्च ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त सम्पूर्ण विज्ञानों के लिए रजोगुण आवश्यक है। बिना रजस्- कर्मशीलता के ज्ञान थोड़े ही प्राप्त होगा ? वस्तुतः संसार के निर्माण के लिए 'रजोजुषे जन्मनि = प्रभु भी रजोगुण युक्त होते हैं, उसी प्रकार ज्ञान-प्राप्ति के लिए एक विद्यार्थी ने भी इस रजोगुण को अपनाना है – बड़ा क्रियाशील [active] बनना है। इंग्लिश में student का अर्थ ही studious परिश्रमी होना है।

    राजस्वृत्तियाँ—यह रजस् जहाँ विज्ञान को जन्म देता है, वहाँ (पूर्वे अर्धे) = जीवन के पूर्वार्ध में [गृहस्थ में] — अर्थात् युवावस्था में (रजसः भानुम्) = रजोगुण की कुछ झलक को अञ्जते व्यक्त करता है। गृहस्थ में धन के प्रति कुछ प्रेम, जीवन को कुछ भौतिक आनन्दमय करने की प्रवृत्ति इस रजस् से ही तो उत्पन्न होती है ।

    निर्माण—इस गृहस्थ के बाद (इव) = जैसे (धृष्णवः) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले विजेता अपने (आयुधानि) = अस्त्रों को (निष्कृण्वाना:) = परिष्कृत कर चमकाने का प्रयत्न करते हैं उसी प्रकार (गाव:) = ये गतिशील (राजस्) = वृत्तियाँ (अ-रुषी:) = जब क्रोधशून्य होती हैं तब (मातरः) = निर्माण करनेवाली होकर (प्रतियन्ति) = प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होती हैं, अर्थात् निर्माण तो इन्हीं राजस्वृत्तियों से होता है बशर्ते कि वे क्रोध की जनक न हों । क्रोध के साथ तो निर्माण सम्भव ही नहीं। इस प्रकार उत्तम निर्माणवाला होकर यह ‘उषस्' नामक रजोगुण हमें 'गोतम' = प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बनाता है।

    भावार्थ

    रजोगुण का भी जीवन के निर्माण में महान् स्थान है। क्रोध के अभाव में यह निर्माण करता है— और क्रोध की सत्ता में विनाश, अतः हम अपनी उषाओं को – रजोगुण को - 'अरुषी' क्रोधशून्य बनाएँ ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    उषापक्ष में—(एताः उ त्याः) ये वे (उषसः) उषाएं अन्तरिक्ष लोक में (पूर्वे अर्द्धे) पूर्व के आधे भाग में (भानुम्) सूर्य को (अञ्जते) प्रकट करती हैं। मानो (केतुम्) सब को अपना आगमन दर्शाने के लिये ज्ञापक चिह्न, ध्वजा=झण्डे के समान (अकृत) बना लेती हैं। (अरुषीः) प्रकाशमान (मातरः) मातास्वरूप उषाएं (अरुषीः) दीप्तिमान् (गावः) किरणों को (आयुधानि इव) अपने हथियारों के समान (निष्कृष्वानाः) सजाती हुईं (धुष्णवः) शत्रुओं का मानदलन करने वाले सुभटों के समान (प्रतियन्ति) अन्धकार को दूर करने के लिये युद्धयात्रा सी करती है। अध्यात्म पक्ष में—(एताः उ त्याः) ये वे जिनका वर्णन पूर्व किया और जो योगाभ्यासी के लिये अपूर्व हैं वे (उषसः) नई नई विशोका ज्योतिष्मती प्रज्ञाएं (केतुम्) अपने ज्ञापक (भानुम्) आदित्य के समान स्वयं प्रकाश और विशोका के प्रकाशक प्राणात्मा का (रजसः*) नीहार या धूम के प्रकटीभाव होने के (पूर्व) पूर्ण रूप से (अर्द्ध*) ऋद्धतम या उत्तम रूप से सम्पन्न होजाने पर (अञ्जते) प्रकाशित करती हैं। वे (अरुषीः) सर्वतः प्रकाशमान (मातरः) प्रमा अर्थात् यथार्थ ज्ञान कराने वाली ऋतम्भराएं (धृष्णवः) शत्रु पर चढ़ाई करने हारे सुभट जिस प्रकार (आयुधानि इव) अपने भाले आदि शस्त्रों को ऊपर उठाते और चलाते जाते हैं उसी प्रकार (गावः) इन्द्रियवृत्तियों को या प्राणों को (निष्कृण्वानाः) आगे प्रेरित करती हैं। योगाभ्यास की यह दशा विशेष विचारयोग्य हैं। अश्विद्वय और उषा का उदय ये दो घटनाएं योगाभ्यास में प्राणायाम की साधना के अनन्तर उत्पन्न होने वाली विशोका ज्योतिष्मती के उदय को दर्शाता है। यहां स्पष्ट करने के लिये योग शास्त्र के सूत्र एवं भाष्य का उद्धरण देते हैं। मन को स्थिर करने के लिये “प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।” (योग० १। ३४) प्राण के प्रच्छर्दन और विधारण का जो अभ्यास किया जाता है वही प्राणायाम कहाता है। इसी प्रच्छर्दन और विधारण को प्राण और अपान के नाम से पुकारा जाता है। अथवा धारणा द्वारा—“विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी।” (यो० १। ३५) विषयवाली जब कोई संवित् प्रवृत्ति उत्पन्न होजाती है तब भी मन उसमें स्थिर हो जाता है। और वे संचित ज्ञान भी समाधिप्रज्ञा अर्थात् विशोका के उत्पन्न होने में कारण हो जाता है। उसके बाद “विशोका वा ज्योतिष्मती।” (यो० सू० १। ३६) हृदयदेश में धारण करने पर बुद्धिसत्व सूर्य के समान प्रकाशस्वरूप साक्षात् होता है। उसके बाद आत्मज्ञान होता है। जैसा इसी सूत्र पर महर्षि व्यासजी ने अपने भाष्य में लिखा है। “हृदयपुण्डरीके धारयतो वा बुद्धिसंवित्। बुद्धिसत्वं हि भास्वरमाकाशकल्पं। तत्र स्थितिवैशाद्यरात् प्रवृत्तिः। सूर्य-इन्दु-ग्रह-मणिप्रभारूपाकारेण विकल्पते। तथाऽस्मितायां समापन्नं चित्तं निस्तरङ्गमहोदधिकल्पं शान्तमनन्तमस्मितामात्रं भवति। यत्रेदमुक्तं—‘तमणुमात्रमात्मा नमनुविद्यास्मीत्येवं तावत्स प्रजानीते इति। एषा द्वयी विशोका विषयवती अस्मितामात्रा च प्रवृत्तिर्ज्योतिष्मतीत्युच्यते। यया योगिनश्चितं स्थितिपदं लभते।’ अर्थात्—हृदय पुण्डरीक में धारणा करते हुए योगि को बुद्धिसंवित् अर्थात् मानस दिव्य प्रज्ञा की सिद्धि होती है। वह बुद्धिसत्व मानस भास्वर=सूर्य के समान प्रकाशवान् विशाल आकाश के समान व्यापक प्रभापटल साक्षात् होता है, उस दशा में योगी का चित्त अति आनन्दजनक, स्थिर स्थिति को प्राप्त करता है। वहां वह बुद्धिसंवित् या चितिशक्ति सूर्य, चन्द्र, शुक्रादि ग्रह, दिव्य मणियों की विशेष प्रभा का स्वरूप होकर स्वयं प्रकाशित होता है, उस समय वह बुद्धितत्व सुषुम्ना में रहता है। उसकी उत्पत्ति वैकारिक अहंतत्व से ही होने के कारण अतिसात्विक होने से अस्मितामात्र ‘अहं’ ऐसा ही भान होता है। उस समय वह चित्त तरङ्गरहित, विशाल समुद्र के समान शान्त और अनन्त प्रतीत होता है। इसी दशा को उपनिषत्कार महर्षियों ने उपनिषदों में लिखा है—“तमणुमात्रमात्मानमनुविद्याऽस्मीत्येवं स प्रजानीते” इति। अर्थात् उस अणुपरिमाण आत्मा को प्राप्त करके ‘अस्मि’ मैं हूं इस प्रकार ज्ञान कर लेता है। विशोका दो प्रकार की होती है एक ‘विषयवती’ जिसमें गन्धादि पांचों ग्राह्य विषयों की तीव्र संवित् की जागृति होती है और दूसरी ‘अस्मितामात्र’ इसमें ‘अहं’ तत्व या मनस्तत्व का साक्षात् अनुभव होता है। दोनों प्रकार की विशोका ‘ज्योतिष्मती’ नाम से ही कही जाती है। इसके साक्षात होने से योगी आनन्द में मग्न हो जाता है और फिर उसका चित्त इसी के द्वारा स्थिति पद को प्राप्त हो जाता है। इस ज्योतिष्मती के संग एक चित्तवृत्ति का दूसरा रूप भी होता है उस को योग शास्त्र में ‘स्वप्नज्ञान’ या ‘निद्राज्ञान’ दो नामा से पुकारा जाता है उसका आलम्बन करके भी योगी का चित्त मग्न होजाता है। यह सात्विकी निद्रावृत्ति है। उपासनारूप में साधक लोग इसका स्वरूप ऐसा निर्धारण करते हैं जैसे चन्द्रमण्डल से निकलने वाली, कोमल मृणाल खण्ड के समान शुभ्रवर्णा, मानों चन्द्रकान्तमणि की बनी हो। बहुत से उसी को इष्टदेव की मूर्ति जानकर उसकी उपासना करते हैं। उसी निद्रा या सुप्तावस्था को भी ब्रह्म का स्वरूप कहा करते हैं वेद में उसको उपा के साथ ‘नक्त’ या ‘रात्रि’ नाम से पुकारा है। योगी का इस प्रकार धारणा या प्राणायाम द्वारा स्थिर चित्त जिस विषय पर बैठ जाय वहां ही उसी की ‘तत्स्थ-तदञ्जनता’ हो जाती है। अर्थात् वह उसी में तन्मय तदाकार हो जाता है। यह ‘सभापत्ति’ कहाती है यह ‘सवितर्का’ और ‘निर्वितर्का’ ‘सविचारा’ और ‘निर्विचारा’ भेद से चार प्रकार की होती है। ये चारों ही ‘समाधि’ दशा कहाती हैं। इनमें निर्विचार दशा में चित्त पर कोई शुद्धि या मल का आवरण नहीं रहता। उस समय बुद्धिसत्व का प्रवाह स्वच्छ सिन्धु के समान रहता है। उसी दशा में योगी का ‘अध्यात्मप्रसाद’ और ‘प्रज्ञालोक’ उत्पन्न होता है। “निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः” (१। ४७) । और उसी समय “ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा” (१। ४८) ‘ऋतम्भरा’ नामक सत्यदर्शिनी बुद्धि का उदय होता है। प्रायः उषा देवता के मन्त्रों में इसी ‘विशोका प्रज्ञा’ और ‘स्वप्न ज्ञान’ और चारों समाधियों और ऋतम्भरा का वर्णन है। संक्षेप से यहां विषय दर्शाया है। इसका विशेष ज्ञान, योगदर्शन पर व्यासमुनिकृत भाष्य देखने से प्राप्त होगा।

    टिप्पणी

    ‘रजसः’—रजति रज्यति वा तद् रजः। भूरञ्जि्भ्यां कित्। (उणा० ४। २१७) लोकः सूक्ष्मधूलिः, स्त्रीपुरुषगुणो वा इति दयानन्दउणादिव्याख्यायाम्, रंज रागे [ भ्वादि दिवादिश्व ] अर्धो हरतेविपरीताद् धारयतेर्वा रयादुद्धृतं भवत्यृघ्नोतेर्वा स्यादद्धतमो विभागः (निरु०)। ऋधु वृद्धौ (दिवादिः)। ऋधु वृद्धौ छन्दसि (स्वादिः)।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथोषसो वर्णयति।

    पदार्थः

    (एताः उ) इमाः खलु (त्याः) ताः (उषसः) प्रभातसंध्याः (केतुम्) प्रज्ञानम् (अक्रत) अकृषत। [करोतेर्लुङि ‘मन्त्रे घसह्वरणश... कृगमिजनिभ्यो लेः’ अ० २।४।८० इति च्लेर्लुक्।] (रजसः) अन्तरिक्षलोकस्य (पूर्वे अर्धे) प्राचीने दिग्भागे (भानुम्) प्रकाशम् (अञ्जते) व्यक्तीकुर्वन्ति। (धृष्णवः) शत्रुधर्षणशीला योद्धारः (आयुधानि इव) शस्त्रास्त्राणि यथा निष्कृण्वन्ति तेजयन्ति एवं (निष्कृण्वानाः) भूप्रदेशान् स्वभासा प्रकाशयन्त्यः, (गावः) गमनशीलाः, (अरुषीः) आरोचमानाः (मातरः) मातृरूपाः उषसः (प्रति यन्ति) गच्छन्त्यागच्छन्ति च ॥१॥२ यास्काचार्यो मन्त्रमिममेवं व्याचष्टे—[एतास्ता उषसः केतुमकृषत प्रज्ञानम्। एकस्या एव पूजनार्थे बहुवचनं स्यात्। पूर्वे अर्धे अन्तरिक्षलोकस्य समञ्जते भानुना। निष्कृण्वाना आयुधानीव धृष्णवः। निरित्येष समित्येतस्य स्थाने ‘एमीदेषां निष्कृतं जारिणीव’ (ऋ० १०।३४।५) इत्यपि निगमो भवति। प्रतियन्ति गावो गमनात्, अरुषीरारोचनात्, मातरो भासो निर्मात्र्यः। निरु० १२।७]। अत्रोषःसु मातृत्वारोपाद् रूपकालङ्कारः, ‘निष्कृण्वाना आयुधानीव धृष्णवः’ इत्युपमा। उभावपि स्वभावोक्तेरङ्गमित्यङ्गाङ्गिभावरूपः सङ्करः। प्राकृतिक्या खलूषसाऽऽध्यात्मिकी ह्युषा व्यज्यते ॥१॥

    भावार्थः

    यथा प्राकृतिक्युषा रात्रेरन्धकारं विच्छिद्य भुवि प्रकाशं जनयति तथाध्यात्मिकी ज्योतिष्मती प्रज्ञा तमोभावं निरस्य चित्तप्रसादं जनयति ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    These Dawns have raised their banner in the eastern half of the atmosphere, and make the sun shine. Just as heroes prepare their weapons for the fray, so do these lustrous Dawns, the mothers of Sun, use the rays as their instruments to fight against darkness, their foe.

    Translator Comment

    When the sun shines in the eastern hemisphere, there is darkness in the other Western hemisphere.

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    Meaning

    The lights of the dawn over there in the eastern half of the sky over earth reveal the sun and proclaim the day. Like resolute warriors burnishing their swords, the flames of the dawn, shining scarlet red, move forward with the rising sun bringing a fresh breath of life for humanity, like mother cows. (Rg. 1-92-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एताः त्याः उषसः उ) એ તે જ પરમાત્મજ્યોતિ (रजसः पूर्वे अर्धे) રંજનાત્મક ભોગ અપવર્ગ રૂપ ફળના શ્રેષ્ઠ તથા સમૃદ્ધ સ્થાન-મોક્ષધામમાં (भानुम् अञ्जते) પ્રકાશ-અધ્યાત્મને યુક્ત કરે છે, (केतुम् अक्रत) મુક્તાત્માને પ્રશાનમય બનાવે છે, (धृष्णवः निष्कृण्वाना आयुधानि इव) જેમ બહાદુર યોદ્ધાઓ પોતાના હથિયારોને ચમકાવતા નજરે પડે છે, તેમ (अरुषीः गावः मातरः प्रतियन्ति) આરોચન-પ્રકાશમાન જ્ઞાનરશ્મિ સર્વનું નિર્માણ કરનારી પરમાત્મજ્યોતિ ભોગરૂપ સંસારનાં નિર્માણ માટે ફરી પ્રાપ્ત થાય છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी प्राकृतिक उषा रात्रीचा अंधार दूर करते व भूमीवर प्रकाश उत्पन्न करते, तसेच आध्यात्मिक ज्योतिष्मती प्रज्ञा तमोभाव दूर करून चित्तप्रसाद उत्पन्न करते. ॥१॥

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