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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1756
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - उषाः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    39

    उ꣡द꣢पप्तन्नरु꣣णा꣢ भा꣣न꣢वो꣣ वृ꣡था꣢ स्वा꣣यु꣡जो꣢ अ꣡रु꣢षी꣣र्गा꣡ अ꣢युक्षत । अ꣡क्र꣢न्नु꣣षा꣡सो꣢ व꣣यु꣡ना꣢नि पू꣣र्व꣢था꣣ रु꣡श꣢न्तं भा꣣नु꣡मरु꣢꣯षीरशिश्रयुः ॥१७५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣢त् । अ꣣पप्तन् । अरुणाः꣢ । भा꣣न꣡वः꣢ । वृ꣡था꣢꣯ । स्वा꣣यु꣡जः꣢ । सु꣣ । आयु꣡जः꣢ । अ꣡रु꣢꣯षीः । गाः । अयु꣣क्षत । अ꣡क्र꣢꣯न् । उ꣣षा꣡सः꣢ । व꣣यु꣡ना꣢नि । पू꣣र्व꣡था꣢ । रु꣡श꣢꣯न्तम् । भा꣣नु꣢म् । अ꣡रु꣢꣯षीः । अ꣣शिश्रयुः ॥१७५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदपप्तन्नरुणा भानवो वृथा स्वायुजो अरुषीर्गा अयुक्षत । अक्रन्नुषासो वयुनानि पूर्वथा रुशन्तं भानुमरुषीरशिश्रयुः ॥१७५६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । अपप्तन् । अरुणाः । भानवः । वृथा । स्वायुजः । सु । आयुजः । अरुषीः । गाः । अयुक्षत । अक्रन् । उषासः । वयुनानि । पूर्वथा । रुशन्तम् । भानुम् । अरुषीः । अशिश्रयुः ॥१७५६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1756
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर उषा का वर्णन है।

    पदार्थ

    (अरुणाः) लालिमावाले (भानवः) प्रकाश (वृथा) अनायास (उदपप्तन्) उठ रहे हैं। (अरुषीः) चमकीली उषाओं ने (स्वायुजः) सुख से जुड़नेवाली (गाः) किरणों को (अयुक्षत) पूर्व दिशा के आकाश में जोड़ दिया है। (उषासः) उषाएँ (पूर्वथा) पूर्व दिनों की भाँति (वयुनानि) लोक-जागरण के कर्मों को (अक्रन्) कर रही हैं। (अरुषीः) लालिमावाली ये उषाएँ (रुशन्तम्) चमकीले (भानुम्) सूर्य का (अशिश्रयुः) आश्रय लिये हुए हैं ॥२॥ यहाँ स्वभावोक्ति अलङ्कार है। ‘पूर्वथा’ में उपमा है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे उषाओं के उदय होने पर आकाश और भूतल प्रकाशित हो जाता है, तथा मनुष्य जागृति अनुभव करते हैं, वैसे ही आध्यात्मिक ज्योतिष्मती प्रज्ञाओं के आविभार्व होने पर चित्तपटल निर्मल हो जाता है और आत्मा, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियाँ आदि सब योगसिद्धि के लिए सचेष्ट हो जाते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (उषासः-वयुनानि पूर्वथा-अक्रन्) परमात्मज्योति उपासक के मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार को३ पूर्ववत् वृत्तिरहित शुद्ध कर देती है (रुशन्तं भानुम्-अरुषीः-अशिश्रयुः) निर्मल प्रकाशमान ज्ञानवान् आत्मा को रोचमान परमात्मज्योति आश्रित हो जाती है—प्राप्त हो जाती है (स्वायुजः-अरुषीः-गाः-वृथा-अयुक्षत) स्वयं युक्त होने वाली आरोचमान ज्ञानरश्मि अनायास स्वभावतः उपासक में युक्त हो जाती है (भानवः-अरुणाः-उदपप्तन्) ज्ञान से भासमान आरोचमान हुई—उपासकजन का मोक्षधाम की ओर उत्थान कराती हैं॥२॥

    विशेष

    <br>

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    विषय

    रजोगुण की स्वाभाविकता

    पदार्थ

    स्वाभाविक- -(अरुणाः भानवः)= रजोगुण की लालवर्ण की किरणें (वृथा) = अनायास ही (उदपप्तन्) = हममें उदय हो जाती हैं । सत्त्वगुण की श्वेत किरणों की उत्पत्ति परिश्रम साध्य है— रजोगुण की किरणें तो अपने आप ही उत्पन्न हो जाती हैं ।

    प्रभु के साथ मेल – परन्तु यही राजस् वृत्तियाँ (अरुषी:) = जब क्रोधशून्य होती हैं तब (स्वायुज:) = [स्व आ युज्] मनुष्य को आत्मतत्त्व से जोड़नेवाली होती हैं। ये (गाः) = इन्द्रियों को (अयुक्षत) = आत्मतत्त्व के चिन्तन में लगाती हैं । रजोगुण ही सत्त्व की ओर झुककर शुभकार्यों में भी हमें प्रवृत्त करता है। 

    ज्ञानोत्पादन–यह (उषासः) = राजस् वृत्तियाँ (पूर्वथा) = पहले की भाँति (वयुनानि अक्रन्) = ज्ञान को करती हैं। रजोगुण के बिना ज्ञान की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं ।

    प्रभु-प्राप्ति-इस प्रकार यह (रजस् अरुषीः) = यदि क्रोधशून्य बना रहे, अर्थात् उसमें सत्त्व का उचित सम्पुट उसे अत्यन्त क्षुब्ध न होने दे तो मनुष्य (रुशन्तं भानुम्) = देदीप्यमान ज्योति को, अर्थात् परमात्मा का (अशिश्रयुः) = सेवन करता है ।

    भावार्थ

    रजस् स्वाभाविक है, परन्तु हमें उसे सत्त्व के सम्पर्क से 'प्रभु की ओर ध्यानवाला और ज्ञानोत्पादन द्वारा प्रभु को प्राप्त करानेवाला' बनाना है।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    उषा पक्ष में—(अरुणाः) दीप्तिमान् (भानवः) उषाकाल की किरणें (वृथा) सर्वव्यापन करती हुई अथवा अनायास, आप से आप (उदपप्तन्) ऊपर उठती हैं। मानों उषा के रथ में (स्वायुजः) आपसे आ जुड़ने वाली सुशील (अरुषीः) दीप्तिवाली (गाः) गौओं या बैलों के समान रश्मियों को (अयुक्षत) लगाया हो। इस प्रकार उषाएं (पूर्वथा) सोने के पूर्व वर्त्तमान गत दिवस के (वयुनानि) ज्ञानों और व्यवहारों को (अक्रन्) पुनः उत्पन्न करती है। तब (अरुषीः) देदीप्यमान उषाएं (रुशन्तं भानुम्) देदीप्यमान सूर्य का (अशिश्रयुः) आश्रय लेती हैं। अध्यात्मपक्ष में—(अरुणाः भानवः वृथा उदपप्तन्) कान्तिमान् रश्मियां या अलोक सहज ही मूर्धाभाग को आवरण करने हारे नाना धारणा प्रदेशों में प्रकट होते हैं अर्थात् बहुत से संवित् उत्पन्न होते हैं। वे (स्वायुजः) स्व=अपने अपने विषयों से या आत्मा से जुड़ने हारी (गाः) इन्द्रियवृत्तियां (अरुषीः) विशेष आलोक से आलोकित होकर (अयुक्षत) समाधि द्वारा प्रकट होती हैं अर्थात् ये विषयवती विशोकाएं हैं। ये सब उषाएं या ज्ञानालोक (पूर्वथा) पूर्वकाल से वर्त्तमान (वयुनानि) चित्त के सब संस्कारों, स्मृतिज्ञानों को (अक्रन्) जागृत कर देते हैं। और ये सब प्रज्ञाएं (अरुषीः) देदीप्यमान होकर (रुशन्तं भानुं) देदीप्यमान आत्मा को (अशिश्रयुः) आश्रय किये रहती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरप्युषा वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (अरुणाः) आरक्तवर्णाः (भानवः) प्रकाशाः (वृथा) अनायासम् (उदपप्तन्) उद्गच्छन्ति। (अरुषीः) आरोचमानाः उषसः (स्वायुजः) सुखेन आयोक्तुं शक्याः (गाः) सूर्यदीधितीः (अयुक्षत) प्राचीने वियति सम्पृक्तवत्यः (उषासः) उषसः (पूर्वथा) पूर्वेष्वहःसु इव। [अत्र ‘प्रत्नपूर्व०’ अ० ५।३।१११ इत्यनेन इवार्थे थाल् प्रत्ययः।] (वयुनानि) लोकजागरणकर्माणि (अक्रन्) कुर्वन्ति। (अरुषीः) अरुष्यः आरक्तगुणा इमा उषसः (रुशन्तम्) रोचमानम्। [रुशदिति वर्णनाम, रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः। निरु० २।२०।] (भानुम्) आदित्यम् (अशिश्रयुः) आश्रितवत्यः सन्ति। [श्रिञ् सेवायां भ्वादिः, लङि प्रथमबहुवचने व्यत्ययेन शपः स्थाने श्लुः] ॥२॥२ अत्र स्वभावोक्तिरलङ्कारः। ‘पूर्वथा’ इत्यत्रोपमा ॥२॥

    भावार्थः

    यथोषसामुदये व्योम भूतलं च प्रकाशितं जायते मानवाश्च जागर्तिमनुभवन्ति तथैवाध्यात्मिकीनां ज्योतिष्मतीनां प्रज्ञानामाविर्भावे चित्तपटलं प्रसीदत्यात्मबुद्धिप्राणेन्द्रियादीनि च सर्वाणि योगसिद्धये सचेष्टानि भवन्ति ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Spontaneously do the ruddy beams of Dawn shoot up, They harness the luminous rays, like bulls easy to be yoked. The Dawns create all sorts of knowledge as in former times. The red hued, brilliant beams at Dawn, finally merge themselves in refulgent Sun.

    Translator Comment

    Dawns create all sorts of knowledge: It is at the time of Dawn, when perfect silence prevails in nature, that Yogis contemplate upon God, mathematicians, philosophers, scientists, and politicians solve all intricate problems.

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    Meaning

    Uprise the red flames of the dawn, naturally and spontaneously like willing red horses yoked to the chariot. The ruddy lights of the dawn awakening humanity to their daily chores as before proclaim the rise of the brilliant sun in obedience to his command. (Rg. 1-92-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (उषासः वयुनानि) પૂર્વથા (अक्रन्) પરમાત્મજ્યોતિ ઉપાસકના મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકારને પૂર્વવત્ વૃત્તિરહિત કરી દે છે. (रुशन्तं भानुम् अरुषीः अशिश्रयुः) નિર્મળ પ્રકાશમાન જ્ઞાનવાન આત્માને રોચમાન-પ્રકાશિત પરમાત્મ જ્યોતિ આશ્રિત બની જાય છે.-પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. (स्वायुजः अरुषीः गाः वृथा अयुक्षत) સ્વયં યુક્ત થનારી પ્રકાશિત જ્ઞાનરશ્મિ આપ મેળે સ્વાભાવિક ઉપાસકમાં યુક્ત બની જાય છે. (भानवः अरुणाः उदपप्तन्) જ્ઞાનથી પ્રકાશિત પ્રકાશમાન થઈને-ઉપાસકજનનું મોક્ષધામની તરફ ઉત્થાન કરાવે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा उषेचा उदय झाल्यावर आकाश व भूतल प्रकाशित होते व माणसे जागृतीचा अनुभव करतात, तसेच आध्यात्मिक ज्योतिष्मती प्रज्ञा उत्पन्न झाल्यावर चित्त पटल निर्मल होते व आत्मा, बुद्धी, प्राण, इंद्रिये इत्यादी सर्व योगसिद्धीसाठी तत्पर होतात. ॥२॥

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