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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1769
ऋषिः - नृमेधो वामदेवो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - द्विपदा गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
त्वा꣡मिच्छ꣢꣯वसस्पते꣣ य꣢न्ति꣣ गि꣢रो꣣ न꣢ सं꣣य꣡तः꣢ ॥१७६९॥
स्वर सहित पद पाठत्वा꣢म् । इत् । श꣣वसः । पते । य꣡न्ति꣢꣯ । गि꣡रः꣢꣯ । न । सं꣣य꣡तः꣢ । स꣣म् । य꣡तः꣢꣯ ॥१७६९॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामिच्छवसस्पते यन्ति गिरो न संयतः ॥१७६९॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वाम् । इत् । शवसः । पते । यन्ति । गिरः । न । संयतः । सम् । यतः ॥१७६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1769
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - बद्ध पुरुष
पदार्थ -
ब्रह्मा का ठीक विपरीत-opposite बद्ध पुरुष है। ब्रह्मा उन्नति के शिखर पर है तो यह बद्ध पुरुष अवनति के गर्त मंच गिरा है। नाना प्रकार के विषयों ने इसे अपने जाल में जकड़ा हुआ है । यह दुनियाभर के विषयों का ध्यान करता है, परन्तु प्रभु का स्मरण नहीं करता । यह विषयों से बुरी तरह से जकड़ा जा चुका है, अत: 'संयत' हो गया है। इस (संयतः) = विषयों से बद्ध पुरुष की (गिरः) = वाणियाँ (त्वाम्) = हे प्रभो ! तेरे प्रति (इत्) = निश्चय ही (न यन्ति) = नहीं जातीं, यह कभी तेरा स्मरण नहीं करता ।
(शवसस्पते) = हे सब बलों के स्वामिन् प्रभो! आपका स्मरण करता हुआ मैं जितना-जितना आपके सम्पर्क में आता हूँ उतना उतना ही अपने अन्दर शक्ति का अनुभव करता हूँ, परन्तु जब इस चमकीली प्रकृति — मोहक विषयों से मुग्ध बना हुआ मैं आपको भूल जाता हूँ और मेरी वाणी कभी आपका स्मरण नहीं करती तो मैं आपसे दूर हो जाता हूँ और शक्ति के स्रोत से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाने से उत्तरोत्तर निर्बल होता जाता हूँ। मेरे जीवन के आनन्द की ज्योति भी टिमटिमाहट के बाद बुझ जाती है । अतः प्रभो! आप कुछ ऐसी कृपा करो कि मैं ‘शवसस्पति’ आपका स्मरण करूँ और आपके सम्पर्क में आकर शक्ति व आनन्द का लाभ करनेवाला बनूँ ।
भावार्थ -
मैं ब्रह्मा बनूँ न कि बद्ध । मेरी वाणियाँ सदा प्रभु का गायन करें।