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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1770
ऋषिः - नृमेधो वामदेवो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - द्विपदा गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
1
वि꣢ स्रु꣣त꣢यो꣣ य꣡था꣢ प꣣थ꣢꣫ इन्द्र त्वद्यन्तु रातयः ॥१७७०॥
स्वर सहित पद पाठवि । स्रु꣣त꣡यः꣢ । य꣡था꣢꣯ । प꣣थः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वत् । य꣣न्तु । रात꣡यः꣢ ॥१७७०॥
स्वर रहित मन्त्र
वि स्रुतयो यथा पथ इन्द्र त्वद्यन्तु रातयः ॥१७७०॥
स्वर रहित पद पाठ
वि । स्रुतयः । यथा । पथः । इन्द्र । त्वत् । यन्तु । रातयः ॥१७७०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1770
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - बन्धनों का खण्डन
पदार्थ -
गत मन्त्र में विषयों से बद्ध एक पुरुष अन्ततोगत्वा अपनी दुर्गति को अनुभव करता हुआ प्रभु से कहता है कि हे प्रभो! सब बलों के पति ‘शवसस्पति' तो आप ही हैं । आपसे दूर होकर मैं तो सब शक्ति खो बैठा हूँ — मेरे आनन्द की ज्योति भी बुझ । मुझे अब क्या करना चाहिए? मेरे उद्धार का मार्ग क्या है ? प्रभु उत्तर देते हैं कि -
(इन्द्र) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! तू यह मत भूल कि तू ‘इन्द्र' है—‘इन्द्रियों का अधिष्ठाता है, न कि दास'। अब तू ऐसा प्रयत्न कर कि (रातयः) = दान (त्वत्) = तुझसे यन्तु इस प्रकार चलें— प्रवाहित हों (यथा) = जैसे (पथ:) = मार्ग से (विस्स्रुतयः) = विविध पर्वतीय जल प्रवाह बहते हैं । ये जलप्रवाह किस प्रकार चट्टानों को भी कुरेद कर अपना रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ते जाते हैं, उसी प्रकार तेरे ये दान-प्रवाह भी तेरे जीवन मार्ग में आई हुई इन विषय चट्टानों को कुरेद कर तुझे आगे बढ़ा ले-चलेंगे। दान का अर्थ देना ही तो नहीं है; देने के साथ 'दो अवखण्डने' से बनकर 'दान' शब्द खण्डन की भावना को भी व्यक्त करता है। ये दान तेरे बन्धनों का सचमुच खण्डन करेंगे । विषयवृक्ष के मूलभूत लोभ पर ही यह दान कुठाराघात करता है और 'दैप् शोधने' शुद्ध बना देता है। एवं, बन्धनों से बचने का या उत्पन्न बन्धनों के खण्डन का उपाय एक ही है – “दान'', अतः प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु की ओर से जीव को दान की प्रेरणा की गयी है । जितना - जितना हम इस प्रेरणा को सुनेंगे व अनुष्ठान में लाएँगे उतना-उतना ही बद्ध न रहकर ब्रह्मा बनने के लिए अग्रसर होंगे।
भावार्थ -
मैं‘दान' का अविकल पाठ पढ़नेवाला बनूँ, जिससे बद्ध स्थिति से ब्रह्मा की स्थिति में पहुँच सकूँ।
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