Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1771
ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
2
आ꣢ त्वा꣣ र꣢थं꣣ य꣢थो꣣त꣡ये꣢ सु꣣म्ना꣡य꣢ वर्तयामसि । तु꣣विकूर्मि꣡मृ꣢ती꣣ष꣢हमि꣡न्द्रं꣢ शविष्ठ꣣ स꣡त्प꣢तिम् ॥१७७१॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । त्वा꣣ । र꣡थ꣢꣯म् । य꣡था꣢꣯ । ऊ꣣त꣡ये꣢ । सु꣣म्ना꣡य꣢ । व꣣र्तयामसि । तुविकूर्मि꣢म् । तु꣣वि । कूर्मि꣢म् । ऋ꣣तीष꣡ह꣢म् । ऋति । स꣣हम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । श꣣विष्ठ । स꣡त्प꣢꣯तिम् । सत् । प꣣तिम् ॥१७७१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा रथं यथोतये सुम्नाय वर्तयामसि । तुविकूर्मिमृतीषहमिन्द्रं शविष्ठ सत्पतिम् ॥१७७१॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । त्वा । रथम् । यथा । ऊतये । सुम्नाय । वर्तयामसि । तुविकूर्मिम् । तुवि । कूर्मिम् । ऋतीषहम् । ऋति । सहम् । इन्द्रम् । शविष्ठ । सत्पतिम् । सत् । पतिम् ॥१७७१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1771
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
Acknowledgment
विषय - विश्वेश, न कि विषय
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘प्रियमेध’=‘जिसको बुद्धि प्रिय है', वह प्रभु से कहता है कि हे (शविष्ठ) = सर्वाधिकशक्तिमन् प्रभो ! हम (त्वा) = आपको ही अपनी इस जीवन-यात्रा के (रथं आवर्तयामसि) = रथ के रूप में वर्त्तते हैं, जिससे (यथोतये) = यथायोग्य रक्षण होता रहे और हम (सुम्नाय) - सुखमय स्थिति को प्राप्त कर सकें । प्रभु 'शविष्ठ' है, उन्हें अपने रथ का सारथि बनाकर मैं अपनी शक्ति को कितना ही अधिक बढ़ा लेता हूँ। उस समय वासनाओं के आक्रमणों की आशंका नहीं रह जाती । मेरा यह रथ ठीक सुरक्षित बना रहता है और परिणामतः मेरा जीवन सुखी होता है ।
मैं उस प्रभु को अपने जीवन-रथ का सारथि बनाता हूँ जो -
१. (तुविकूर्मिम्) = महान् कर्म करनेवाले हैं। अब मैं भी तो अपने जीवन में कोई-न-कोई महान् कर्म ही कर पाऊँगा ।
२. (ऋतीषहम्) = जो दुर्गति का पराभव करनेवाला है। प्रभु की शरण में आ जाने पर किसी प्रकार की दुर्गति तो अब सम्भव ही नहीं है ।
३. (इन्द्रम्) = वे प्रभु परमैश्वर्यशाली हैं— उन्हीं को अपना रथ बना लेने से मैं भी तो उस परमैश्वर्य का पानेवाला बनता हूँ ।
४. (सत्पतिम्) = वे प्रभु सज्जनों के रक्षक हैं। प्रभु को जीवन रथ बनाने पर सत्य की अभिवृद्धि तो मुझमें होगी ही और परिणामतः मैं प्रभु की रक्षा का पात्र अवश्य बनूँगा । विश्वेश को अपना लेने पर किसी आवश्यक विषय की कमी का तो प्रश्न ही नहीं रह जाता । व्यर्थ की चिन्ताओं से ऊपर उठा हुआ जीवन आनन्दमय बनता चलता है।
भावार्थ -
मेरी जीवन-यात्रा प्रभु-निर्भर होकर चले ।
इस भाष्य को एडिट करें