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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 182
ऋषिः - वत्सः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
ओ꣢ज꣣स्त꣡द꣢स्य तित्विष उ꣣भे꣢꣫ यत्स꣣म꣡व꣢र्तयत् । इ꣢न्द्र꣣श्च꣡र्मे꣢व꣣ रो꣡द꣣सी ॥१८२॥
स्वर सहित पद पाठओ꣡जः꣢꣯ । तत् । अ꣣स्य । तित्विषे । उभे꣡इ꣢ति । यत् । स꣣म꣡व꣢र्तयत् । स꣣म् । अ꣡व꣢꣯र्तयत् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣡र्म꣢꣯ । इ꣣व । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ ॥१८२॥
स्वर रहित मन्त्र
ओजस्तदस्य तित्विष उभे यत्समवर्तयत् । इन्द्रश्चर्मेव रोदसी ॥१८२॥
स्वर रहित पद पाठ
ओजः । तत् । अस्य । तित्विषे । उभेइति । यत् । समवर्तयत् । सम् । अवर्तयत् । इन्द्रः । चर्म । इव । रोदसीइति ॥१८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 182
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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विषय - कब चमकता है?
पदार्थ -
(यत्)=जब (इन्द्रः)=इन्द्रियों का अधिष्ठाता जितेन्द्रिय जीव (चर्म इव) = चमड़े की भाँति (उभे रोदसी) = द्युलोक और पृथिवीलोक दोनों को (समवर्तयत्) = ओढ़ लेता है [संवर्त - to wrap up] (तत्)=तभी (अस्य)=इसकी (ओजः)=[ओज=Vigour, Vitality, Virility, Splendour] ज्योति (तित्विषे)=चमकती है।
किसी भी वस्तु का ओढ़ना रक्षा के उद्देश्य से होता है। वस्त्रों में से वर्षा का पानी सुगमता से अन्दर प्रविष्ट होकर हमें गीला कर सकता है, परन्तु चर्म का आवरण ऐसा नहीं। यहाँ भी ओढ़ने योग्य दोनों वस्तुएँ चर्म की भाँति ही हमें सुरक्षित रखनेवाली हैं।
रोदसी का अर्थ ‘द्यावापृथिव्यौ' है, परन्तु अध्यात्म में वे बुद्धि व शरीर के वाचक होते हैं। शरीर तो पार्थिव है ही, 'मूर्ध्ना द्यौः', यह पुरुषसूक्त का वचन मस्तिष्क व द्युलोक के सम्बन्ध की सूचना दे रहा है।
इन बुद्धि व शरीर के ओढ़ने का अभिप्राय इन्हें ही अपना रक्षक बनाने से है। मनुष्य शरीर को सदा स्वस्थ रखने का ध्यान करे और बुद्धि को सात्त्विक व तीव्र बनाने का सतत उद्योग करे तो वह इन दोनों को अपना रक्षक बनाता है। रक्षा किया हुआ स्वास्थ्य व ज्ञान मनुष्य की रक्षा करता है - जो इनका हनन करता है, वह इनके हनन से अपना ही हनन कर रहा होता है।
केवल शारीरिक उन्नति व स्वास्थ्य ही मानव का उद्देश्य नहीं। हम स्वस्थ रहकर ओक वृक्ष की भाँति बड़े लम्बे-चौड़े होकर तीन सौ वर्ष भी जी लिये तो यह मानव जीवन की सफलता नहीं है। इसके विपरीत हमने केवल ज्ञान-प्राप्ति की ओर ध्यान दिया और हम एक अद्भुत बुद्ध-दैत्य [Intellectual giant] बन गये तो यह भी स्वास्थ्य के अभाव में व्यर्थ-सा ही होगा। मन्त्र ने इसी भावना को 'उभे' शब्द से घोषित किया है। हमें स्वास्थ्य व बुद्धि दोनों का सम्पादन करना है। ब्रह्म और क्षत्र दोनों को श्रीसम्पन्न बनाना ही आदर्श है। अकेला पहलवान का शरीर व अकेली ऋषि की आत्मा मनुष्य को पूर्ण नहीं बनाती।
स्वास्थ्य व ज्ञान–शरीर व बुद्धि-ब्रह्म व क्षत्र– दोनों का समविकास होने पर ही मनुष्य की शोभा होती हैं। इन दोनों का कण-कण करके संग्रह करनेवाला 'काण्व' ही प्रभु का 'वत्स' =प्रिय होता है ।
भावार्थ -
ब्रह्म व क्षत्र को अपनी ढाल बनाकर हम संसार में चमकनेवाले बनें।
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